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प्रथमोऽध्यायः
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सारांश यह है कि शब्द का जो अर्थ होता है, उस अर्थ में उस शब्द की व्युत्पत्ति से जो क्रिया उत्पन्न हो, वह क्रिया जब हो रही हो तब ही उस अर्थ के लिए उस शब्द का प्रयोग करना चाहिए, ऐसी एवंभूत नय की मान्यता है । अर्थात् – जो शब्द पूर्ण प्रयोगावस्था रूप हो, वही एवंभूत
ग्राही है ।
पूर्वोक्त ऋजुसूत्रादि चारों प्रकार के कथन में पूर्वापर जो विशेषता है, उसमें भी पूर्ववर्ती नय से उत्तर सूक्ष्म, सूक्ष्मतर तथा सूक्ष्मतम विषय हैं और उत्तरोत्तर नय के आधार पूर्वपर्यायार्थिक हैं । इसलिये ऋजुसूत्रनय से पर्यायार्थिकनय का प्रारम्भ तत् तत् नय के विषय पर रहा हुआ है ।
इन ऋजुसूत्रादि चारों नयों को पर्यायार्थिकनय कहते हैं । इनको पर्यायार्थिकनय कहने का कारण यह है कि - ऋजुसूत्रनय भूतकाल और भविष्यत्काल को छोड़कर केवल वर्तमानकालग्राही है। ऋजुसूत्रनय के पश्चात् शब्दनय, समभिरूढ़नय और एवंभूतनय ये तीनों नय उत्तरोत्तर विशेषगामी होने से पर्यायार्थिक ही हैं । द्रव्यार्थिकनय का और पर्यायार्थिकनय का मुख्य हेतु यही है। कि प्रथम के नैगमादि तीन नय स्थूल रूप से सामान्यतत्त्वग्राही हैं और उत्तर के ऋजुसूत्रादि चार नय विशेष तत्त्वग्राही हैं
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