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सम्बन्धकारिका-५
हिन्दी पद्यानुवाद : • तीर्थंकर नामकर्म का फल तीर्थप्रवर्तन कहा ,
कृतकृत्य जिन कर्मोदये, धर्मतीर्थ स्थापे सुमना। जैसे प्रकाश विकीर्ण करना सूर्य का स्वभाव है , वैसे तीर्थस्थापना यह तीर्थपति का सद्भाव है।
श्री महावीर प्रभु की गुणस्तुति यः शुभकर्मासेवन - भावितभावो भवेष्वनेकेषु । जज्ञे ज्ञातेक्ष्वाकुषु, सिद्धार्थनरेन्द्रकुलदीपः ॥ ११ ॥ ज्ञानः पूर्वाधिगतै-रप्रतिपतितैर्मतिश्रुताऽवधिभिः ।
त्रिभिरपि शुद्धैर्युक्तः शैत्यद्युतिकान्तिभिरिवेन्दुः ॥ १२ ॥ टोका : अनेकभवेषु शुभकर्मणां सेवनेन वासितोऽस्ति भावो यस्य, तथा सिद्धार्थनृपस्य कुले दीपकसमानः सः भगवान् ज्ञातेक्ष्वाकुवंशे समुपद्यत अजायत ।। ११ ॥ शुद्धैः पूर्वप्राप्ताप्रतिपाति-मति-श्रुताऽवधिज्ञानैः युक्तस्तीर्थङ्करः शीतलतया कान्ति-द्युतिभ्याञ्च चन्द्र इव शोभते ॥ १२ ।।
अर्थ : पूर्वकाल में अनेक भवों में शुभकर्मों के सेवन से जिनके परिणाम शुभ संस्कारों से युक्त हो गये थे, ऐसे भगवान महावीर अन्तिम भव में ज्ञातृ इक्ष्वाकुवंश में उत्पन्न हुए और सिद्धार्थ राजा के कुलदीपक बने ॥ ११॥ जैसे चन्द्रमा सदा शीतलता, द्युति और कान्ति से युक्त है वैसे ही ये भगवान महावीर पूर्व के देवभव से हो चले आये अप्रतिपाती मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान इन तीन ज्ञानों से युक्त थे ॥ १२॥ हिन्दी पद्यानुवाद : • अनेक भवों में जिसने, शुभ कर्मों का सेवन किया ,
सुदृढ़ कर शुभ भावना को, वीशस्थानक तप भी किया। नन्दन ऋषि के भव में, जिन-नामकर्म निकाचित किये , देवभव कर यहाँ जन्मे, सिद्धार्थ - कुलदीपक भये । ज्ञात-इक्ष्वाकुविभूषण, वंश के सूर्य सम जब ये हुए , अप्रतिपाती पूर्वाधिगत मतिश्रुतावधि सह युक्त ये। शैत्य-द्युति-कान्ति गुण युत, चन्द्र समान थे शोभते , स्वज्ञान की चांदनी से, दिग् दिग् विभा भूषित हुए। शुभसारसत्त्वसंहनन - वीर्यमाहात्म्यरूप-गुणयुक्तः ।
जगति महावीर इति, त्रिदशैर्गुणतः कृताभिख्यः ॥ १३ ॥ टोका : शुभश्रेष्ठसत्त्वेन संघयेण वीर्येण माहात्म्यरूपगुणयुक्तन देवतादिभिश्च गुणद्वारा जगति महावीर इति नाम स्थापितं यस्य तादृशः ॥ १३ ।।