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________________ ११३ ] प्रथमोऽध्यायः [ ९ पल्योपम के असंख्यातवें भाग न्यून एक कोडाकोड़ी सागरोपम प्रमाण होती है, तब जीव-आत्मा राग-द्वेष की ग्रन्थि (यानी राग-द्वेष के तीव्र परिणाम) के पास आता है। राग-द्वेष की दुर्भेद्य ग्रन्थि को भेद कर आगे बढ़ने के लिए जोव-प्रात्मा को वीर्योल्लास की अति आवश्यकता रहती है। राग-द्वेष की निबिड़ ग्रन्थि तक आये हुए अनेक जीव पुनः वहाँ से पीछे फिरते हैं। वे आयुष्य बिना अन्य कर्मों की दीर्घ स्थिति को बाँधते हैं और संसार में परिभ्रमण करते हैं। कितने ही अभव्य जीव और दूरभव्यजीव इस राग-द्वेष की दुर्भेय ग्रन्थि तक आकर भी ग्रन्थि का भेद न कर सकने से पीछे फिरते हैं तथा जो ग्रन्थि तक आये हए आसन्न भव्य जीव हैं, जिनमें आध्यात्मिक विकास साधने की योग्यता प्रगटी है, वे ग्रन्थिभेद के लिए अवश्य ही प्रात्मा के अपूर्व वीर्योल्लास रूप अपूर्वकरण द्वारा राग-द्वेष की दुर्भेद्य निबिड़ ग्रन्थि को भेदते हैं। तत्पश्चाद् आत्मा के उत्तरोत्तर विशुद्ध अध्यवसाय रूप अनिवृत्तिकरण द्वारा जीव मिथ्यात्व की स्थिति पर अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण अन्तरकरण करता है। मिथ्यात्वकर्म के दलिकों से रहित अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थिति को अन्तरकरण कहा जाता है। यह अन्तरकरण उदयक्षण से अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त की मिथ्यात्व की स्थिति से ऊपर की हर्त प्रमाण स्थिति में रहे हए मिथ्यात्व के दलिकों को वहां से ले लेता है और इस स्थिति को तण-घास बिना की उर्वर भूमि के समान मिथ्यात्व कर्म के दलिकों से रहित करता है। इस तरह अन्तरकरण होते हुए मिथ्यात्व कर्म की स्थिति के दो भाग होते हैं। उसमें एक भाग अन्तरकरण की नीचे की स्थिति का होता है और दूसरा भाग अन्तरकरण की ऊपर की स्थिति का होता है। नीचे की स्थिति में मिथ्यात्व का उदय होने से जीव मिथ्यादृष्टि है। उसका काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण का है। वह स्थिति समाप्त होते ही अन्तरकरण प्रारम्भ हो जाता है। उसके प्रथम समय से ही जीव प्रौपशमिक सम्यक्त्व को पाता है। अब अन्तरकरण में रहा हा जीव मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के दलिकों को शुद्ध करता है। इससे उसके तीन पुंज बनते हैं (१) शुद्ध पुज, (२) अर्धशुद्ध पुंज और (३) अविशुद्ध पुज। इन तीनों पुजों के नाम इस प्रकार हैं (१) शुद्ध पुज का नाम सम्यक्त्व मोहनीय कर्म है। (२) अर्धशुद्ध पुज का नाम मिश्र मोहनीय कर्म है। (३). अविशुद्ध पुज का नाम मिथ्यात्व मोहनीय कर्म है। इसकी व्याख्या के लिए 'कोदरा' (कोदों) धान्य का उदाहरण कहा जाता है। जैसेनशा उत्पन्न करने वाले कोदरा को शुद्ध करते हुए उसमें से कितना ही भाग शुद्ध होता है, कितना ही भाग अर्धशुद्ध होता है और कितना ही भाग अशुद्ध ही रहता है; वैसे ही इधर भी जीव-प्रात्मा द्वारा मिथ्यात्व के दलिकों को शुद्ध करते हुए कितने ही दलिक शुद्ध होते हैं, कितने ही दलिक अर्द्धशुद्ध होते हैं तथा कितने ही दलिक अशुद्ध ही रहते हैं। अन्तरकरण का काल पूर्ण होते ही जो शुद्ध पुज का अर्थात् सम्यक्त्व मोहनीय कर्म का उदय हो जाय तो जीव-आत्मा क्षायोपशमिक सम्यक्त्व पाता है, अर्द्ध शुद्ध पुज का अर्थात् मिश्र
SR No.022532
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tikat tatha Hindi Vivechanamrut Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1994
Total Pages166
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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