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१।१६ ] प्रथमोऽध्यायः
[ ३६ * अवग्रहादीनाम् भेदाः बहु-बहुविध-क्षिप्र-निश्रिताऽसंदिग्ध-ध्र वाणां सेतराणाम् ॥ १६ ॥
* सुबोधिका टीका * पूर्वसूत्रे कथिता अवग्रहादयश्चत्वारो मतिज्ञानविभागाः सन्ति । एषां बह्वादीनामर्थानाम् सम्प्रतिपक्षाणां भवन्त्येकशः । बहु, बहुविधं (अनेकप्रकारक), क्षिप्रं (शीघ्रतया), निश्रितं (चिह्नसहितं), असंदिग्धं (सन्देहरहितं), ध्र वं (निश्चितं), इति षट्; तथा तेषां प्रतिपक्षरूपं अर्थात् अबहु (किञ्चित्), अबहुविधं (अल्पप्रकारक), अक्षिप्रं (दीर्घकालिक), अनिश्रितं (चिह्नरहितं), सन्दिग्धं (सन्देहसहितं), अध्र वं (अनिश्चितं), इति षट् च मिलित्वा द्वादशविधं अवग्रहादिकं भवति। अर्थात्(१) बह्वगृह्णाति, (२) अल्पमवगृह्णाति, (३) बहुविधमवगृह्णाति (४) अबहुविधमवगृह्णाति, (५) क्षिप्रमवगृह्णाति, (६) अक्षिप्रमवगृह्णाति, (७) निश्रितमवगृह्णाति, (८) अनिश्रितमवगृह्णाति, (६) असंदिग्धमवगृह्णाति (१०) संदिग्धमवगृह्णाति, (११) ध्र वमवगृह्णाति, (१२) अध्र वमवगृह्णाति चेति । एवमीहाऽपाय-धारणानामपि ज्ञेयम् ॥ १६ ॥
___* सूत्रार्थ-बहु, बहुविध, क्षिप्र, निश्रित, असंदिग्ध और ध्रुव ये छह तथा सेतर अर्थात् इनसे विपरीत क्रमशः अबहु (अल्प), अबहुविध (एकविध), अक्षिप्र (चिरेण), अनिश्रित, संदिग्ध और अध्र व; ये छह मिलकर कुल बारह प्रकार के अवग्रहादि रूप मतिज्ञान के प्रभेद हैं ।। १६ ।।
विवेचन स्पर्शनेन्द्रियादि पाँच इन्द्रिय और मन इन छह साधनों द्वारा उत्पन्न होने वाले मतिज्ञान के हादि बारह भेद होते हैं। जीव-मात्मा के क्षयोपशम और विषय की विविधता से अवग्रहादिक के बारह-बारह भेद होते हैं । अर्थात् अवग्रह, ईहा, अपाय और धारणा इनमें से प्रत्येक के बारहबारह भेद होते हैं।
(१-२) बहुग्राही-अबहुग्राही:-बहु का अर्थ है अनेक और अबहु का अर्थ है अल्प-एक, इनको जानना । जैसे-दो या इससे भी अधिक-विशेष शब्दों को या पुस्तकों को जानते हुए अवग्रहादि चारों क्रमभावी मतिज्ञान अनुक्रम से बहुग्राही अवग्रह, बहुग्राही ईहा, बहुग्राही अपाय, बहुग्राही धारणा कहलाते हैं तथा अल्प-एक शब्द को या एक पुस्तक को जानते हुए पूर्वोक्त अवग्रहादि चारों भेद अल्पग्राही कहलाते हैं । अर्थात्-कोई व्यक्ति तत, वितत, सुषिर, घन इत्यादि अनेक शब्दों को एक ही साथ जान सके, उसका अवग्रहादि अनेक शब्दों का होता है तथा जो व्यक्ति एकाध-दो शब्दों