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________________ १।२६ प्रथमोऽध्यायः [ ५६ अपर्याप्त के उत्पन्न होने से तीसरे समय में जो अपने शरीर की जघन्य अवगाहना होती है, इसका जितना प्रमारण होता है, उतना प्रमाण ही अवधिज्ञान के जघन्य क्षेत्र का भी होता है । इसके ऊपर क्रम से बढ़ता हुआ प्रवधिज्ञान का क्षेत्र सम्पूर्ण लोकपर्यन्त होता है । मन:पर्ययज्ञान के विषय में ऐसा नहीं होता । कारण कि उसका क्षेत्र मनुष्य लोक प्रमारण का ही है । जब अवधिज्ञानी अंगुल के असंख्यातवें भाग से यावत् सम्पूर्ण लोक प्रमाण देखता है, तब मन:पर्ययज्ञानी मनुष्योत्तर पर्वत पर्यन्त देखता है । अर्थात् - मन:पर्ययज्ञानी मात्र ढाई द्वीप और दो समुद्र प्रमारण मनुष्य क्षेत्र में रहे हुए संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवों के मन के विचारों को जान सकता है । इससे आगे के नहीं तथा न इससे आगे रहे हुए • जीवों के मनोगत भावों को जानता है । यह क्षेत्र की अपेक्षा अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान में अन्तर है । (३) स्वामी - अवधिज्ञान के स्वामी चार गति के जीव हैं । अर्थात् - अवधिज्ञान चारों गति में रहे हुए सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि जीवों को उत्पन्न हो सकता । संयमी साधु और असंयमी जीव तथा संयतासंयत श्रावक भी अवधिज्ञान प्राप्त कर सकता है, इतना ही नहीं किन्तु चारों ही गति वाले जीवों को अवधिज्ञान प्राप्त हो सकता है । मन:पर्ययज्ञान तो संयमी मनुष्य को ही हो सकता है, अन्य को नहीं हो सकता । अर्थात् - मन:पर्ययज्ञान मनुष्यगति में सातवें अप्रमत्तगुणस्थाने रहे हुए संयमी जीवों को ही उत्पन्न होता है तथा छठे प्रमत्तगुणस्थान से बारहवें गुरणस्थान पर्यन्त होता है । यह स्वामी की अपेक्षा से अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान में अन्तर है । (४) विषय – अवधिज्ञान का विषय सर्व रूपी द्रव्य और उसकी अल्प पर्यायें हैं । इसमें मन की स्थूल पर्यायों का भी समावेश होता है । अवधिज्ञान सर्व रूपी द्रव्यों को और कतिपय असम्पूर्ण पर्यायों को जानता है, किन्तु अवधिज्ञान के विषय का अनन्तवाँ भाग मन:पर्ययज्ञान का विषय है । अर्थात्– - मन:पर्ययज्ञान का विषय मात्र मनोवर्गणा के पुद्गलों और उसकी पर्यायों के होने से अवधिज्ञान के विषय से अनन्तवें भाग प्रमाण है । इसलिए अवधिज्ञान की अपेक्षा मन:पर्ययज्ञान का विषय अतिशय सूक्ष्म है । इस तरह विषय की अपेक्षा से भी अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान में अन्तर है । जैसे अवधिज्ञान चारों गति के जीवों को उत्पन्न हो सकता है, वैसे मन:पर्ययज्ञान नहीं होता है । वह तो संयमी मनुष्य को ही होता है, उसमें भी ऋद्धिप्राप्त को ही होता है तथा ऋद्धिप्राप्तों में भी सबको नहीं किन्तु किसी-किसी व्यक्ति को ही होता है । प्रश्न - मन:पर्ययज्ञान न्यूनविषयी होते हुए भी उसको प्रवधिज्ञान से विशुद्धतर मानने का क्या कारण है ? उत्तर - यह कारण विषय की न्यूनाधिकता से नहीं है, किन्तु विषयगत रही हुई सूक्ष्मता के जानने पर है । जैसे- एक व्यक्ति मनुष्य अनेक शास्त्रों को पढ़ने वाला होता है और दूसरा व्यक्तिमनुष्य एक ही शास्त्र को पढ़ने वाला होता है, किन्तु एक शास्त्र को पढ़ा हुआ मनुष्य यदि अपने विषय का सूक्ष्मता के साथ विस्तारपूर्वक प्रतिपादन करता है, तो उस अनेक शास्त्रों के पढ़ने वाले व्यक्ति से एक शास्त्र को पढ़ने वाले व्यक्ति का ज्ञान विशेष विशुद्ध कहा जाता है। इसी तरह इधर अल्पविषयी होने पर भी वह सूक्ष्म भावों को जानता है, इसलिये अवधिज्ञान से मन:पर्ययज्ञान को विशुद्धतर कहा है ।
SR No.022532
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tikat tatha Hindi Vivechanamrut Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1994
Total Pages166
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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