Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tikat tatha Hindi Vivechanamrut Part 01 02
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 115
________________ १।३५ ] प्रथमोऽध्यायः [ ७६ है और व्यवहारनय का भी कहलाता है। इससे सारांश यह पाता है कि जितने अंश में दृष्टि सामान्य तरफ होती है उतने अंश में संग्रहनय समझना तथा जितने अंश में दृष्टि विशेष तरफ होती है, उतने अंश में व्यवहारनय जानना। व्यवहारनय का विषय संग्रहनय से न्यून है। क्योंकि वह संग्रह गहीत वस्तु-पदार्थ को पृथककरण रूप केवल विशेषग्राही है। इस तरह उत्तरोत्तर संकुचित क्षेत्र होते हुए भी पूर्वापर सम्बन्ध वाला है। नैगमनय सामान्य और विशेष दोनों का संबोधक है इसलिए इमी से संग्रहनय की उत्पत्ति है, इतना ही नहीं किन्तु संग्रहनय के विषय पर ही व्यवहारनय आलेखित है। उपर्युक्त कथन के अनुसार नंगमनय लोकरूढ़ि के आधारवर्ती है। लोकरूढ़ि भी संकल्प, अंश, उपचार रूप सामान्य तत्त्वाश्रयी है। इसलिए नैगमनय के भी संकल्प, अंश तथा उपचार रूप तीन भेद होते हैं। दूसरे संग्रहनय एकीकरण रूप व्यापारविषयी होने से सामान्यगामी है। तीसरे व्यवहारनय पृथक्करणोन्मुखी होते हुए भी उसकी क्रिया केवल सामान्य पट पर चित्रित होने से वह सामान्यविषयी है। इसलिए नैगम, संग्रह और व्यवहार ये तीनों नय द्रव्यार्थिक कहे जाते हैं। (४) ऋजुसूत्रनय-जो भूत और भविष्यत्काल के विचार को छोड़कर केवल वर्तमान समयग्राही हो, उसे 'ऋजसत्रनय' कहते हैं। अर्थात-जो नय मात्र वस्त-पदार्थ की वर्तमा की तरफ लक्ष्य रखे, वह ऋजुसूत्रनय है। यह नय वस्तु-पदार्थ की वर्तमान पर्याय को ही मान्य रखता है, उसकी अतीत और अनागत पर्याय को नहीं। यद्यपि मनुष्य भूत और भविष्यत्काल के विचार-विमर्श की कल्पना का परित्याग नहीं कर सकता है, तो भी किसी समय केवल वर्तमानग्राही विचार-विमर्शों की तरफ प्रवाहित होकर उपस्थित वस्तु-पदार्थ को ही वस्तु का स्वरूप मानता है। वर्तमानकालीन ऋद्धि-समृद्धि सुख के लिये साधनभूत है। किन्तु भूतकालीन समृद्धि का स्मरण तथा भावी ऋद्धि-समद्धि की कल्पना वर्तमानकाल में सुख का साधन नहीं होती है। इसो भारत वर्तमान काल में जो श्रीमन्ताई ठकूराई-सेठाई भोगता है, उसे ही श्रीमन्त-ठाकूर-सेठ कहा जाता है। ऐसा मन्तव्य ऋजुसूत्रनय का है। जबकि व्यवहारनय का तो मन्तव्य यह है कि-भले ही वर्तमानकाल में श्रीमन्ताई-ठकुराई-सेठाई न भोगता हो तो भी भूतकाल में उसने श्रीमन्ताई-ठकुराई-सेठाई भोगी थी, इस दृष्टि से उसे वर्तमानकाल में भी श्रीमन्त, ठाकूर, सेठ कहते हैं। ऋजुसूत्रनय जो वर्तमानकाल में देश का या राज्य का नेता-मालिक होता है, उसे ही राजा-महाराजा कहता है। जबकि व्यवहारनय भविष्यत्काल में जो देश का या राज्य का नेता-मालिक बनने वाला है, उसे भी राजा-महाराजा कहता है। इसलिए व्यवहारनय की अपेक्षा ऋजुसूत्रनय सूक्ष्म है। (५) साम्प्रत-शब्दनय-जिस प्रकार पदार्थ का स्वरूप है, उसी प्रकार उसका उच्चारण करने, कर्ता, कर्म प्रादि कारकों की अपेक्षा से और अर्थ के अनुरूप ग्रहण या निरूपण करने को शब्दनय कहा जाता है। जिसमें घट शब्द के अर्थ का संकेत हो, उसको घट कहे, वह शब्दनय है। लोक में शब्द बिना व्यवहार नहीं चल सकता है। शब्दों से होने वाले बोध में शब्दनय की मुख्यता-प्रधानता है। शब्दनय यानी शब्द के आश्रयी होती हुई अर्थविचारणा। शब्दनय लिङ्ग, काल और वचन इत्यादि के भेद से अर्थभेद मानता है। अर्थात्-भिन्न-भिन्न शब्दों का और भिन्नभिन्न लिङ्गों आदि का अर्थ भी भिन्न-भिन्न स्वीकारता है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166