Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tikat tatha Hindi Vivechanamrut Part 01 02
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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सम्बन्धकारिका
• क्या सूर्य के आगे कभी है, अन्य तेज प्रकाशता, यत्न कितना ही करें पर है मिली क्या सफलता ? जिनराज की तो देशना थी, भानु भा सी प्रखरता, नक्षत्र क्या टिकते कभी, हो जब रवि की उदयता ॥
भगवान को नमस्कारपूर्वक सप्रयोजन ग्रन्थकरण प्रतिज्ञा
कृत्वा त्रिकरणशुद्धं, तस्मै परमर्षये नमस्कारम् । पूज्यतमाय भगवते, वीराय विलीनमोहाय ॥ २१ ॥ तत्त्वार्थाधिगमाख्यं, बह्वर्थं संग्रह लघुग्रन्थम् । वक्ष्यामि शिष्य हितमिममर्हद्वचनैकदेशस्य ॥ २२ ॥
टीका : परमर्षये परमपूज्याय मोहरहिताय भगवते वीराय त्रिकरणशुद्धिपूर्वकं नमस्कृत्य, अल्पशब्दसंसूचितार्थ - बाहुल्यमिदं तत्त्वार्थाधिगम नामानं लघुग्रन्थं शिष्याणां हिताय श्रहं ( उमास्वातिवाचकः ) वर्णयिष्यामि ( रचयिष्यामि) । यश्चायं प्रर्हद्वचनैकदेशोऽस्ति ।। २१-२२ ।।
अर्थ : मोहनीय कर्म का सर्वथा विनाश करने वाले, सर्वोत्कृष्ट, पूज्य उन परमर्षि प्रभु महावीर को मन-वचन-काया की शुद्धिपूर्वक नमस्कार करके मैं ( उमास्वातिवाचक) शिष्यों के हित के लिए श्री अरिहन्त भगवान के वचनों के एकदेशसंग्रह रूप तथा विशेषार्थं सहित इस तत्त्वार्थाधिगम नामक लघुग्रन्थ को संक्षेप में कहूंगा ।। २१-२२ ।।
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हिन्दी पद्यानुवाद: • निर्मोह निर्मम जिन महावीर पूज्य सारे विश्व के त्रिकरणशुद्धि वन्दना कर, प्रभु के ही पादपद्म में । बह्वर्थ का सागर तथापि, लघुग्रन्थ की गागर भरी सूत्र तत्त्वार्थाधिगम, अभिधान रचना है करी ॥ • शिष्य का ही हित प्रमुख, इस योजना का लक्ष्य है, जिनवचन का अल्पांश लेकर, रचा यह भी सत्य है । क्या पार न पमाय ऐसा, है रत्ननिधि रत्नाकर, और कहाँ यह मंजूषा, तदुद्भव रत्नों को गिन् ॥
सम्पूर्णपने जिनवचन का संग्रह करना अशक्य है महतोऽतिमहाविषयस्य, दुर्गम ग्रन्थभाष्यपारस्य । कः शक्तः प्रत्यासं, जिनवचनमहोदधेः कर्तुम् ॥ २३ ॥ शिरसा गिरि बिभित्से, दुच्चिक्षिप्सेच्च स क्षिति दोर्भ्याम् । प्रतितीर्षेच्च समुद्रं, मित्सेच्च पुनः कुशाग्रेण ।। २४ ।। व्योम्नीन्दु चिक्रमिषेन्मेरुगिरिं पाणिना चिकम्पयिषेत् । गत्या निलं जिगीषेच्चरमसमुद्रं पिपासेच्च ॥ २५ ॥