Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tikat tatha Hindi Vivechanamrut Part 01 02
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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सम्बन्धकारिका-११
• दो भुजाओं के जोर से क्या फेंक सकते हैं धरा ?
उत्तुंग वोचिपूर्ण सिन्धु, दो बाहु से किसने तरा? क्या कहीं मापा किसी ने, कुशाग्र से सिन्धु कभी ? कूद कर आकाश में क्या, इन्दु ले सकते कभी ?॥ • क्या मेरुपर्वत को कभी, इक हाथ से चंचल किया ?
क्या वायुगति जीती किसी ने? क्या स्वयम्भू को पिया ? क्या खद्योत के तेज से ही सूर्य का पराभव किया ? हैं यदि ये सब असम्भव, ग्रन्था
श्री जिनवचन के एक पद की भी विशेषता एकमपि तु जिनवचनाद् यस्मानिर्वाहकं पदं भवति । श्रयन्ते चाऽनन्ताः, सामायिकमात्रपद-सिद्धाः ॥ २७ ॥ तस्मात् तत् प्रामाण्यात , समासतो व्यासतश्च जिनवचनम् ।
श्रेय इति निविचारं, ग्राह्य धार्य च वाच्यं च ॥ २८ ।।
टीका : यस्मात् जिनवचनानामेकपदमपि उत्तरोत्तरज्ञानप्राप्तिद्वारा संसारस्य पारप्राप्तिकर्मणि समर्थमपि यतः सामायिकपदमात्रसेवनेनापि [अर्थात् सामायिकक्रियया अपि] अनन्ताः जीवा: सिद्धाः सजाताः, इत्थं शास्त्रे श्रुतमस्ति ।। २७ ॥ तस्मात् कारणात् तेषां जिनवचनानां संक्षेपेण विस्तृतेन च ग्रहणं (ज्ञानम्) कल्याणकारकमस्ति, इत्थं विज्ञाय तानि जिनवचनानि निःसन्देहमेव ग्राह्याणि (पठितव्यानि) अन्यानपि पठितु प्रोत्साहयेत् ।। २८ ।।
अर्थ : जिनवचन का एक पद भी भव्य जीवों को उत्तरोत्तर सम्यग्ज्ञानप्राप्ति द्वारा संसारसागर से पार करने में समर्थ होता है। केवल सामायिक पद के ज्ञान, उच्चारण मात्र से ही अनन्त काल में, अनन्त भव्य जीव मोक्ष को प्राप्त हो गये हैं, ऐसा आगम में सुनने में आता है ॥ २७ ॥ उपर्युक्त प्रमाण से आगम पर पूर्ण विश्वास रख करके संक्षेप से या विस्तार से ग्रहण किया हुआ जिनवचन ही कल्याणकारी है, ऐसी श्रद्धापूर्वक ही जिनवचन ग्रहण करना, धारण करना (चिन्तनादि करना) और उपदेशादि द्वारा निरूपण करना चाहिए ॥२८॥ हिन्दी पद्यानुवाद : • जिनवचनसुधाबिन्दु को जो भाव से चखता यहाँ ,
नष्ट कर विष निज भवाजित, भवसिन्धु को तरता यहाँ । शास्त्र से सुनते हैं कि सीझे अनन्ता भव्य जीव , पदमात्र सामायिक.. सूनी, पाया परमार्थ अतीव ।। यह सत्य तथ्य प्रमाण मानो तथा निःसंशय सूनो , कल्याणहेतू जिनवचन को, ग्राह्य धार्य विस्तृत करो संक्षेप या विस्तार से जिस भाँति रुचि हृदि गम्य हो , पीयूष सम जिनवचन मीठे, पान-सुख संकल्प हो ।
धर्मोपदेशकों को एकान्त लाभ न भवति धर्मः श्रोतुः सर्वस्यैकान्ततो हितश्रवरणात् । ब्रु वतोऽनुग्रहबुद्धया, वक्तुस्त्वेकान्ततो भवति ॥ २६ ॥