Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tikat tatha Hindi Vivechanamrut Part 01 02
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti

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Page 113
________________ ११३५ ] प्रथमोऽध्यायः [ ७७ जाय वहाँ तक उस कार्य की सर्व क्रियाएँ संकल्प की ही कही जाती हैं। इसलिये श्री पालीताणा जाने की तैयारी भी श्री पालीतारणा गमन की क्रिया है। ऐसा नैगमनय कह रहा है। (२) अंश-यानी भाग। अंश का-भाग का पूर्णता में उपचार । जैसे कि कोई व्यक्ति अपने घर-मुकाम की दीवार आदि का कोई एक अंश-भाग गिर जाने पर बोलता है कि 'मेरा मुकाम गिर पड़ा' इत्यादि। इस तरह अन्य में भी घटित करना। यह सर्व व्यवहार अंश-भाग नैगमनय की दृष्टि से चलता है। (३) उपचार-विश्व में कारण का कार्य में उपचार होता है। भूतकाल का वर्तमानकाल में तथा भविष्यत्काल का भी वर्तमानकाल में उपचार होता है, इत्यादि । जैसे-जब अपना जन्मदिन आता है, तो कहते हैं कि 'पाज मेरा जन्मदिन है'। अर्थात् भूतकाल का वर्तमानकाल में आरोप करके इस तरह बोला जाता है। ऐसे अन्य वस्तुओं में घटित करना। जगत् में प्रचलित अनेक प्रकार की लोक-व्यवहार की रूढ़ि इस नैगमनय की दृष्टि से चलती है। अब अन्य प्रकार से भी नैगमनय का विचारविमर्श निम्नलिखित रूप से है नैगमनय के दो प्रकार यानी दो भेद हैं। एक सर्वपरिक्षेपी (समग्रग्राही) नैगमनय और दूसरा देशपरिक्षेपी (देशग्राही) नैगमनय । सर्वपरिक्षेपी को सामान्यग्राही तथा देशपरिक्षेपी को विशेषग्राही कहते हैं। प्रत्येक वस्तु-पदार्थ सामान्य और विशेष उभयस्वरूप में है। जो वस्तु-पदार्थ के सामान्य अंश का अवलम्बन लेकर प्रवृत्त होता है, उसको सर्वपरिक्षेपी (समग्रग्राही) सामान्य नैगमनय कहते हैं। जैसे कि-(१) सोने का, चांदी का, पीतल का, लोहे का, मिट्टी का, अथवा लाल, पीला, काला, श्वेत इत्यादि का भेद न करके केवल घटमात्र को ग्रहण करना। यह सामान्य नैगमनय है। (२) जो वस्तु-पदार्थ के विशेष अंश का पाश्रय लेकर प्रवृत्त होता है, उसे देशपरिक्षेपी (देशग्राही) विशेष नैगमनय कहते हैं। जैसे कि-घट को सोने का या चांदी का या पीतल का या मिट्टी का इत्यादि विशेषरूप से ग्रहण करना । यह विशेष नैगमनय है। अर्थात-गमनय के सामान्य ग्राही और विशेषग्राही दो भेद जानना। प्रत्येक वस्तू अपेक्षाभेद से सामान्य और विशेष दोनों रूपों में है। कारण कि नैगमनय सामान्य और विशेष उभय को ग्रहण करता है। नैगमनय का विषयक्षेत्र सब से विस्तीर्ण है। इसलिये वह सामान्य तथा विशेष दोनों को लोकरूढ़ि के अनुसार कभी मुख्य भाव से और कभी गौरण भाव से ग्रहण करता है। (२) संग्रहनय-विवक्षित वस्तु-पदार्थ में भेद न करके उसको किसी भी सामान्य गुणधर्म की अपेक्षा अभेदरूप से ग्रहण करना, उसे संग्रहनय कहते हैं। अर्थात संग्रहनय वस्तु-पदार्थ को सामान्य पा ही ग्रहण करने वाला है। पदार्थों के सर्वदेश तथा एकदेश दोनों को ग्रहण करता है, इसलिए संग्रहनय कहा जाता है। प्रत्येक वस्तु-पदार्थ अपेक्षाभेद से सामान्य और विशेष उभयरूप में है। अर्थात् प्रत्येक वस्तु-पदार्थ में सामान्य अंश तथा विशेष अंश दोनों विद्यमान हैं। यहाँ तो संग्रहनय सामान्य अंश को ग्रहण करता है। क्योंकि वह कहता है कि सामान्य के बिना विशेष नहीं हो सकता। सामान्य के बिना विशेष आकाशकुसुमवत् असत् ही है अर्थात् निरर्थक है। जहाँ-जहाँ विशेष है वहाँवहाँ सामान्य अवश्य है। इसलिए संग्रहनय प्रत्येक वस्त-पदार्थ की पहिचान सामान्य रूप से है। इस नय की दष्टि विशाल होने से यह सर्व विशेष पदार्थों को सामान्य से एकरूप में संग्रह करता

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