Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tikat tatha Hindi Vivechanamrut Part 01 02
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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७८ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र
[ ११३५ है। जैसे-जड़ और चेतन ये दोनों पदार्थ पृथग्-भिन्न होते हुए भी संग्रहनय जड़-चेतन इन दोनों पदार्थों को एक रूप से संग्रह कर लेता है। सत् रूप में जड़ और चेतन दोनों पदार्थ समान हैं अर्थात एकसे हैं। प्रत्येक जीवात्मा पृथ-कपृथक होते हुए भी संग्रहनय समस्त जीवात्मानों को चैतन्य से एक रूप में ही मानता है। कारण कि प्रत्येक में चैतन्य समान-एक ही है।
विश्व में जितने पदार्थ हैं, उन सब में सत् लक्षण 'उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्त सत्' सामान्य रूप से रहा हुना है। उसी में दृष्टि रखकर और विशेष स्वभाव को प्रोर दृष्टि न देकर विश्व के समस्त वस्तु-पदार्थों को जो एक रूप से समझे वह संग्रहनय है। अर्थात्-संग्रहनय में सभी वस्तुपदार्थों का समावेश होता है। संग्रह की विशालता सामान्यता के अनुसार है, इतना ही नहीं किन्तु विविध वस्तू-पदार्थों के सामान्य तत्त्वों का एकीकरण ही संग्रहनय है। जैसे-कोट, कमीज, पतलून, धोती, साड़ी, बुशशर्ट, ब्लाउज इत्यादि परिधान अनेक प्रकार के होते हुए भी उनकी विशेषता की तरफ दृष्टिपात न करके केवल सामान्य लक्षण को ग्रहण करके सबको वस्त्र-कपड़ा कहना, यह वाक्य संग्रहनयग्राही है अर्थात्-संग्रहनय को ग्रहण करने वाला है । संग्रहनय के सामान्य अंश में अनेक प्रकार की तरतमता रहती है। इसलिए सामान्य अंश जितना विशाल होगा उतना संग्रहनय विशाल तथा सामान्य अंश जितना संक्षिप्त होगा, उतना संग्रहनय संक्षिप्त समझना।
(३) व्यवहारनय-जो नय विशेष तरफ दृष्टि करके प्रत्येक वस्तु को पृथक्-पृथक् यानी भिन्न-भिन्न मानता है, वह व्यवहारनय कहलाता है। अर्थात् - एक रूप से ग्रहण की हुई वस्तु-पदार्थ की विविध विशेषताओं को समझने के लिये या व्यवहार में उनका उपयोग करने के लिये तो उस समय वस्तु-पदार्थ का पृथक्करण करना पड़ता है, उसे ही व्यवहारनय कहा जाता है। यह नय कहता है कि विशेष सामान्य से भिन्न नहीं है, तो भी विशेष बिना व्यवहार नहीं चल सकता। जैसे—गुरु ने शिष्य को या शिक्षक ने विद्यार्थी को कहा कि-'प्राचार्य श्री सुशीलसरि जैन ज्ञानमन्दिर' में से 'पागमशास्त्र' ले प्रायो? इतना कहने से भी लाने वाला व्यक्ति नहीं ला सकेगा। कारण कि, वर्तमानकाल में जैनदर्शन के आचाराङ्ग आदि पैंतालीस प्रागमशास्त्र हैं। उनमें से कौनसा प्रागमसूत्र लाना ? तो कहना पड़ेगा कि 'पंचमाङ्ग श्री भगवती सूत्र' लामो। ऐसा कहने से वह 'पूज्य श्री भगवतीजी सत्र' लायेगा। विशेष को स्वीकारे बिना व्यवहार नहीं चल सकता। इसलिए व्यवहारनय विशेष अंश को मानता है ।
उक्त नेगम, संग्रह और व्यवहार इन तीन नयों में नैगमनय सामान्य और विशेष दोनों को स्वीकारता है। संग्रहनय केवल सामान्य को स्वीकारता है तथा व्यवहारनय केवल विशेष को स्वीकारता है। उनमें संग्रहनय और व्यवहारनय परस्पर सापेक्ष रूप हैं। इससे एक ही विचार दोनों नयों का होता है। जैसे किसी ने कहा कि-'इस सिरोही नगर में मनुष्य रहते हैं। यह विचार संग्रहनय का और व्यवहारनय का भी है। नगर में तो पंचेन्द्रिय मनुष्यों के उपरान्त तिर्यंच जानवर गाय-भैंस इत्यादि जीव भी रहते हैं। इससे मनुष्य और जानवर दोनों जीव होते हुए भी जीव की दृष्टि से मनुष्य विशेष हैं। इससे जीव को दृष्टि से 'इस नगर में मनुष्य रहते हैं' यह विचार व्यवहारनय की अपेक्षा से है। अब मनुष्यों में भी स्त्री-पुरुष, बालक-बालिका, युवक-युवती एवं वृद्ध-वृद्धा वगैरह होते हैं। मनुष्य के स्त्री और पुरुष इत्यादि विशेष भेदों की अपेक्षा 'इस नगर में मनुष्य रहते ।'हैं यह विचार संग्रहनय का है। इस तरह एक हो विचार संग्रहनय का भी कहलाता