Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tikat tatha Hindi Vivechanamrut Part 01 02
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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१।३४ ]
प्रथमोऽध्यायः
[ ७१
तीव्रता को मन्द करता हुआ आत्मतृप्ति को उपार्जन करने का हेतु होता हो तो उस ज्ञान को प्रज्ञान नहीं कहते, किन्तु ज्ञान ही कहेंगे ।
विश्व की प्रत्येक वस्तु स्व द्रव्य क्षेत्र - काल-भाव की अपेक्षा से सत् है अर्थात् विद्यमान है तथा पर-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा से असत् है अर्थात् अविद्यमान है । विश्व की प्रत्येक वस्तु में दो धर्म रहते हो हैं । सत्त्व और असत्त्व, नित्यत्व और अनित्यत्व तथा सामान्य और विशेष इत्यादि । ये धर्म प्रत्येक वस्तु-पदार्थ में होते हैं तो भी मिथ्यादृष्टि जीवात्मा अमुक वस्तु सत् ही है, अमुक वस्तु असत् ही है, अमुक वस्तु नित्य ही है, अमुक वस्तु अनित्य ही है तथा अमुक वस्तु सामान्य ही है एवं
मुक वस्तु विशेष ही है; इत्यादि वस्तु-पदार्थों के एकान्त रूप में एक धर्म को ही स्वीकार करती है। और अन्य धर्म को अस्वीकार करती है । इसलिये उसका ज्ञान अज्ञान स्वरूप ही कहा जाता है ||३३||
* नयानां निरूपणम्
नैगम-संग्रह - व्यवहारर्जुसूत्रशब्दा नयाः ॥ ३४॥
* सुबोधिका टीका
पूर्वोक्तं ज्ञानम् । चारित्रं तु अग्रे नवमेऽध्याये वक्ष्यामः । प्रोक्ते च प्रमाणे पूर्वम् । नयानां निरूपणं तु अत्रैव वक्ष्यामः । तद्यथा - नैगमः संग्रहः, व्यवहारः, ऋजुसूत्रः, शब्दश्चेति पञ्चनयाः भवन्तीति ॥ ३४ ॥
* सूत्रार्थ - नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्द ये पाँच नय हैं ।। ३४ ।।
विवेचन
पूर्व में कहा था कि प्रमाण के एकदेश को नय कहते हैं । वस्तु अनन्तधर्मात्मक है । अनन्तधर्मात्मक वस्तु के नित्य या अनित्य किसी भी एक अंश को ग्रहण कर प्रकाशित किया जाय, उसको हो नय कहा जाता है । अनेक अपेक्षाओं से नय के अनेक भेद हैं । परन्तु सामान्य से इस सूत्र में नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्द इन पाँच भेदों की सूचना दी गई है ।
नय के भेदों प्रकारों की संख्या के लिये एक ही निर्णय या परम्परा नहीं है । लेकिन सामान्य रूप से विशेषता - बहुलता नैगमादि सात भेदों के कथन की ओर दृष्टिगोचर होती है । नगमादि पाँच नयों के अलावा समभिरूढ़ और एवंभूत ये दो नय मिलाकर सात नयों की प्रसिद्धि आज भी जैन ग्रन्थों में प्रचलित है । छह, पाँच, चार और दो इत्यादि भेदों की भी व्याख्या देखने में प्राती है । इसका वर्णन 'स्याद्वादरत्नाकर', 'रत्नाकर श्रवतारिका' 'नयप्रदीप', 'नयविचार' और 'नयविमर्श' इत्यादि अनेक ग्रन्थों में विस्तारपूर्वक देखा जा सकता है ।
जैनधर्म के मूल सिद्धान्त अनेकान्तवाद यानी स्याद्वाद को समझने के लिए नयवाद के बोध की