Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tikat tatha Hindi Vivechanamrut Part 01 02
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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६६ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ १३२ अर्थात-केवलज्ञान के समय भी मत्यादि चारों ज्ञानों की शक्ति प्रात्मा में रहती है, किन्तु ये ज्ञान केवलज्ञान से अभिभूत हो जाते हैं । इसलिए उस अवस्था में कुछ भी कार्य करने में समर्थ नहीं रहते हैं। जैसे-बादल से रहित प्राकाश में अर्क यानी सर्य का उदय होने पर अन्य तेजो द्रव्य-अग्नि, रत्न चन्द्रमा, नक्षत्र एवं तारा इत्यादि का प्रकाश उसमें पाच्छादित हो जाता है और वे अपना कार्य करने में भी अकिञ्चितकर हो जाते हैं। वैसे ही मत्यादि चारों ज्ञान पंचम केवलज्ञान के उदित होने पर निष्क्रिय हो जाते हैं। केवलज्ञान के सद्भाव में उनका प्रभाव नहीं मानते हैं, किन्तु प्रारमा में अनीन्द्रियजन्य आत्मज्ञान प्रकट हो जाने से इन्द्रिय उपलब्ध मत्यादि ज्ञान की आवश्यकता नहीं रहती है। कारण कि--अवधिज्ञान एवं मनःपर्यवज्ञान केवल रूपी द्रव्य विषयी हैं तथा मतिज्ञान और श्रतज्ञान के सद्भाव में उनकी उपलब्धता एवं सहचारिता है। पंचम केवलज्ञान की विद्यमानता में अन्य शक्तियों की प्रवृत्ति है, किन्तु वह पृथग्-भिन्न स्वरूप में प्रकाशित नहीं होती है।
(२) फिर और कितनेक अन्य प्राचार्यों का कथन यह है कि-केवलज्ञान प्रात्म-स्वभाव रूप है। यह ज्ञान ज्ञानावरण कर्म के सर्वथा क्षय होने से ही उत्पन्न होता है। जब आत्मा में ज्ञानावरण कर्म का सर्वथा क्षय होता है, तब क्षयोपशम रूप उपाधि का अभाव होने से मत्यादि चार ज्ञान का भी सर्वथा अभाव होता है। यह कथन स्पष्ट रूप में समझना चाहिए कि मतिज्ञानादिक चार प्रकार के जो क्षायोपशमिक ज्ञान हैं, उनका उपयोग जीव-प्रात्मा को क्रमशः होता है; नहीं कि युगपत्-एक साथ में । अर्थात् ये चारों ही मत्यादि ज्ञान क्रमवर्ती ही हैं, सहवर्ती नहीं हैं। इन मतिज्ञानादिक चारों ज्ञान की शक्ति जीव.आत्मा में स्वाभाविक नहीं है, किन्तु कर्मोपाधि सापेक्ष क्षयोपशमजन्य है; जबकि केवलज्ञान तो ज्ञानावरणीय कर्म का सर्वथा क्षय होने से प्रकट होता है। इसलिए केवली भगवन्त को केवलज्ञान ही रहा करता है। उनको शेष मत्यादि चारों ज्ञान नहीं हुआ करते । केवलज्ञान की शक्ति के बिना मत्यादि ज्ञान शक्तियाँ नहीं होती हैं और इनका पर्यायरूप कार्य भी नहीं होता है।
कितनेक यह भी कहते हैं कि-ज्ञानावरणीय कर्म के अविभाग पर्याय सब समान हैं तथा उन अविभाग पर्यायों में रई हही वर्णादि को जानने की शक्तियाँ भी अनेक प्रकार की हैं। उन शक्तियों के पाविर्भाव की तारतम्यता से ही मतिज्ञानादि ऐसे भिन्न-भिन्न नाम रखे गये हैं और केवलज्ञानावरणीय का सर्वथा क्षय अर्थात् अभाव हो जाने से केवल केवलज्ञान ही रहता है।
सारांश यह है कि--क्षायिक भाव में तथा क्षायोपशमिक भाव में परस्पर विरोध होने से क्षायिक-केवलज्ञान के साथ चारों क्षायोपशमिक ज्ञानों का सहभाव नहीं रहता है। इसलिए भगवन्त के केवलज्ञान को छोडकर मत्यादि चारों ज्ञानों का अभाव ही जानना ॥३१॥
* प्रमाणाभासरूपज्ञानानां निरूपणम् * मति-श्रुताऽवधयो विपर्ययश्च ॥ ३२ ॥
ॐ सुबोधिका टीका 8 पूर्वोक्तं प्रमाणरूपाणां पञ्चज्ञानानां निरूपणम् । अथ अत्रैव प्रमाणाभासरूपाणां ज्ञानानां निरूपणं कथ्यते इति । मतिज्ञानं श्रुतज्ञानमवधिज्ञानं च एतानि