Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tikat tatha Hindi Vivechanamrut Part 01 02
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ १।३३
किन्तु विपरीत ही बोध होता है । इसलिए मिथ्यादृष्टि के मति, श्रुत और अवधि ये तीनों ज्ञान अज्ञान
रूप हैं ।
जब मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का विनाश होता है तब सम्यग्दर्शन गुरण प्राप्त होता है । इसके प्रभाव से वस्तु पदार्थ का यथार्थ बोध होता है। इससे सम्यग्दृष्टिवन्त जीव आत्मा का मत्यादि ज्ञान ज्ञानस्वरूप है । यहाँ यथार्थ बोध का अर्थ प्रमाणशास्त्र की दृष्टि से नहीं, किन्तु अध्यात्मशास्त्र की दृष्टि से है । यह अध्यात्मशास्त्र है, यहाँ यथार्थ बोध से अभिप्राय है वह बोध जो आध्यात्मिक • विकास में सहायक बने । सम्यग्दृष्टि का ज्ञान प्राध्यात्मिक विकास में सहायक बनता है । मिथ्यादृष्टिवन्त का ज्ञान इस प्रकार का नहीं है ।
सम्यग्दृष्टिवन्त व्यक्ति मुख्यपने अपने ज्ञान का उपयोग प्रात्मोन्नति में करता है और मिथ्यावन्त व्यक्ति अपने ज्ञान का उपयोग पुद्गल - पोषरण में करता है । इसलिए मिथ्यादृष्टि का लौकिक दृष्टि से उच्च ज्ञान भो अज्ञान रूप में है और सम्यग्दृष्टिवन्त का अल्पज्ञान भी ज्ञान स्वरूप है ।
मिथ्यादृष्टिवन्त का भौतिकज्ञान हो या श्राध्यात्मिकज्ञान हो, ये दोनों ही ज्ञान अज्ञान रूप हैं । सम्यग्दृष्टिवन्त का आध्यात्मिकज्ञान तो ज्ञानस्वरूप है, इतना ही नहीं उसका भौतिकज्ञान भी हे और उपादेय का विवेकवन्त होने से ज्ञान रूप है अर्थात् - - सम्यग्ज्ञान रूप है । मिथ्यादृष्टिवन्त
मति श्रुत और अवधि ये तीनों ही ज्ञानोपयोग हो सकते हैं, कारण कि चतुर्थ मन:पर्ययज्ञान और पंचम केवलज्ञान ये दोनों सम्यग्दृष्टिवन्त के ही होते हैं । इसलिए प्रथम तीन को ही विपरीत ज्ञान या ज्ञान कहा है ।
प्रश्न - सम्यग्दर्शन के सहचारी मत्यादिक को तो ज्ञान कहते हो और मिथ्यादर्शन के सहचारी मत्यादिक को अज्ञान कहते हो, यह कैसे हो सकता है ?
कारण कि मिथ्यादृष्टि दो प्रकार के हैं । एक भव्य मिथ्यादृष्टि और दूसरे अभव्य मिथ्यादृष्टि । उसमें जो सिद्धावस्था को प्राप्त हो सकते हैं, उनको 'भव्य' कहते हैं तथा जिनमें सिद्धावस्था को प्राप्त करने की योग्यता नहीं है, उनको 'भव्य' कहते हैं । फिर मिथ्यादृष्टि के तीन भेद भी होते हैं । एक अभिगृहीत मिथ्यादर्शन, दूसरा अनभिगृहीत मिथ्यादर्शन और तीसरा संदिग्ध मिथ्यादर्शन | उसमें जो वीतराग - श्रीजिनेश्वर भगवान के प्रवचन से सर्वथा भिन्न निरूपण करने वाले हैं, उनको (बौद्धादिकों को) श्रभिगृहीत मिथ्यादर्शन कहते हैं तथा जो वीतराग- श्रीजिनेश्वर भगवान के वचनों पर श्रद्धा नहीं है, उनको अनभिगृहीत मिथ्यादर्शन कहते हैं । एवं वीतरागश्रीजिनेश्वर भगवान के वचन पर सन्देह संशय करने वालों को संदिग्ध मिथ्यादर्शन कहा करते हैं ।
तीनों ही प्रकार के मिध्यादृष्टि भव्य भी होते हैं और अभव्य भी होते हैं । वे सभी मिथ्यादृष्टिवन्त व्यक्ति सम्यग्दृष्टिवन्त व्यक्ति के ही समान घट और पटादिक का ग्रहरण और निरूपण तथा रूप और रसादिक का ग्रहरण एवं निरूपण करते हैं । फिर भी क्या कारण है कि सम्यग्दृष्टिवन्त व्यक्ति के ग्रहण और निरूपण को समीचीन कहते हैं तथा मिथ्यादृष्टिवन्त व्यक्ति के ग्रहण और निरूपण को विपरीत कहते हैं। क्योंकि बाधक प्रत्यय के होने से ही किसी भी प्रकार के ज्ञान को मिथ्या कह सकते हैं, श्रन्यथा नहीं कह सकते ।