Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tikat tatha Hindi Vivechanamrut Part 01 02
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
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को जान सके, उसका अवग्रहादि एकाध दो शब्द का ही होता है। इस तरह आगे भी क्षिप्रादि भेदों में जानना चाहिए।
(३-४) बहुविधग्राही-अबहुविधग्राही:-बहुविधग्राही का अर्थ अनेक प्रकार से और अबहुविध ग्राही का अर्थ एक प्रकार से जानना। जैसे-रूप, रंग, प्राकृति-पाकार इत्यादि विविधता वाले पुस्तकादि को जानते हुए उक्त चारों अवग्रहादि ज्ञान अनुक्रम से बहुविधग्राही कहलाते हैं। इसी तरह ईहा, अपाय और धारणा भी बहुविधग्राही कहे जाते हैं एवं एक प्रकार से पुस्तकादि को जानने वाले का ज्ञान उक्त बहुविधग्राही चारों भेद के समान प्रबहुविधग्राही अर्थात्-एकविधग्राही कहा जायेगा। अर्थात-कोई तत शब्द के अनेक भेदों को जान सके एवं वितत शब्द के भी अनेक भेदों को जान सके । ऐसे अनेक प्रकारों को जान सकता है। कोई एकाध दो प्रकार को ही जान सकते हैं। यहाँ पर व्यक्तिगत बहु तथा अल्प का अर्थ संख्यावाची है और बहुविध या एकविध का अर्थ उसकी विविधता का अवबोधक है।
(५-६) क्षिप्रग्राही-अक्षिप्रग्राही:-क्षिप्र का अर्थ है शीघ्र यानी जल्दी और अक्षिप्र का अर्थ है धीरे यानी विलम्ब से । पूर्वोक्त अवग्रहादि चारों भेद जब जल्दी-शीघ्रग्राही होते हैं तब उनको शीघ्रग्राही कहते हैं तथा जो धीरे-विलम्ब से होता है तब उनको प्रक्षिप्रग्राही कहते हैं ।
(७-८) निश्रितग्राही-अनिश्रितग्राही–निश्रित का अर्थ है चिह्न यानी निशानी युक्त तथा अनिश्रित का अर्थ है चिह्न यानी निशानी रहित । जैसे-पूर्व में अनुभव द्वारा शीतल, कोमल और सुकुमारादि स्पर्श रूप लिङ्गादिक से वर्तमान में जुही के पुष्प-फूल को जानने वाले को पूर्वोक्त चारों ज्ञान क्रमशः निश्रितग्राही अवग्रहादि रूप हैं तथा लिङ्ग के बिना पुष्प-फूलों को जानने वाले का ज्ञान क्रमशः अनिश्रितग्राही-अलिङ्गग्राही अवग्रहादि है । अर्थात्-कोई व्यक्ति अमुक प्रकार के चिह्नों से यह अमुक प्रकार की वस्तु-पदार्थ है इस तरह जान लेता है तथा कोई व्यक्ति चिह्नों के बिना भी जान लेता है । जैसे—कोई व्यक्ति जिनमूर्ति के वृषभलाञ्छन को देखकर कहता है कि यह मूर्ति श्री ऋषभदेव भगवान की है तथा कोई व्यक्ति वृषभलाञ्छन देखे बिना भी कहता है कि यह मूत्ति श्री आदिनाथ-ऋषभदेव भगवान की है।
(९-१०) असन्दिग्धग्राही-सन्दिग्धग्राही:-असन्दिग्ध का अर्थ है सन्देहरहित-निश्चय और सन्दिग्ध का अर्थ है सन्देहसहित-अनिश्चय जैसे-यह स्पर्श चन्दन का है, पुष्प-फूल का नहीं। इस तरह स्पर्श को निश्चित रूप से जानने वाले के उपर्युक्त चारों ज्ञान असन्दिग्ध-निश्चयग्राही अवग्रहादि हैं तथा चन्दन और पुष्प-फूल दोनों का स्पर्श शीतल होता है, इसलिए यह चन्दन का स्पर्श है या पुष्प-फूल का है ? इस तरह अनुपलब्धज्ञान सन्देहयुक्त होता है। इसलिये उसको सन्दिग्धअनिश्चयग्राही अवग्रहादि ज्ञान कहते हैं ।
* "बहु-बहुविध-क्षिप्र-निश्रिताऽ संदिग्ध-ध्र वाणां सेतराणाम् ॥१-१६॥” इस सूत्र में 'असंदिग्ध' के स्थान में 'अनुक्त' ऐसा पाठ भी देखने में आता है। 'बिना कही हुई' को 'अनुक्त' कहते हैं और कही हुई को 'उक्त' कहते हैं । जैसे—किसी भी वक्ता के प्रारम्भ के एकाध शब्द को सुनकर या अस्पष्ट अपूर्ण-अधूरे शब्द को सुनकर, उसके कहने के सम्पूर्ण अभिप्राय को जान सके, उसको अनुक्तग्राही कहते हैं तथा उससे विपरीत अर्थात्वक्ता के सम्पूर्ण बोलने पर ही उसका अभिप्राय समझ सके ऐसे ज्ञान को उक्तग्राही कहते हैं।