Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tikat tatha Hindi Vivechanamrut Part 01 02
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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३८ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ११५ (३) अपाय-अवग्रह और ईहा द्वारा गृहीत विषय का अधिक एकाग्रता से निर्णय-निश्चय करना, उसको 'अपाय' कहते हैं अर्थात् विचारणा के बाद यह अमुक वस्तु है, ऐसा निर्णय होना अपाय है । जैसे—वस्तु-पदार्थ के गुण, दोष या योग्यायोग्य की विचारणा से निर्णय-निश्चय हो कि यह सर्प का स्पर्श नहीं है, किन्तु रज्जु-डोरी का स्पर्श है; उसको ही अपाय कहते हैं । अपाय, अपगम, अपनोद, अपव्याध, अपेत, अपगत, अपविद्ध और अपनुत ये सभी शब्द एक अर्थ के वाचकसमानार्थक हैं।
(४) धारणा-अपने वस्तु-पदार्थ का जो ज्ञान-बोध, तद् विषयक चिरस्थिति या अवधारण को धारणा कहते हैं । अर्थात्-अपने योग्य पदार्थ का जो बोध हुआ है, उस बोध का अधिक काल तक स्थिर रहना, इसे धारणा कहा जाता है। अवधारणा गृहीत ज्ञान कालान्तर में नष्ट हो जाता है, किन्तु ऐसा है कि पुनः योग्य निमित्त मिलने पर निश्चित विषय का स्मरण हो जाय, ऐसी निश्चय की सततधारा एवं तद्जन्यसंस्कार और संस्कारजन्य स्मृति-स्मरण वही धारणा है।
उपर्युक्त चारों भेदों का जो क्रम है, वह सहेतुक है । कारण कि सूत्रक्रम से उसकी उत्पत्ति है और उसी का वह सूचक भी है । अर्थात्-अवग्रहादि क्रमश: प्रवर्तित होते हैं। फिर भी कमलदलशतपत्रभेद के समान अति शीघ्रता से प्रवर्तता होने से हमें उसकी अनुभूति नहीं होती। हमें तो ऐसा ज्ञात होता है जैसे सीधा ही अपाय हो रहा हो। अपाय के पश्चात् धारणा होती है । धारणा के भी तीन भेद हैं। १. अविच्यति २. वासना ३. स्मति । (१) अविच्यति-उपयोग से च्यूत न होना, अर्थात प्रवाहित हो उपयुक्त होना ही अविच्युति है। अर्थात्-निर्णय के पश्चात् वस्तु का उपयोग उपयुक्त हो यही अविच्युति है । (२) वासना--अविच्युति से आत्मा में पड़े हुए संस्कार वासना हैं । यही संस्कार वासना धारणा के नाम से ख्यात हैं, जो संख्यात, असंख्यात काल पर्यन्त भवान्तर में भी रह सकते हैं एवं अनुभव किये जा सकते हैं। (३) स्मृति--मतिज्ञान के दूसरे प्रकार का नाम स्मृति है । इससे इन्द्रियज्ञान का विषय स्मृति में आता है। मनोवैज्ञानिक पाश्चात्य दार्शनिक इसे Recollection अथवा Recognition भी कहते हैं। पाश्चात्य दार्शनिक Hobbe के अनुसार तो स्मरण का विषय अथवा Idea मात्र मरणोन्मुख इन्द्रियज्ञान Nothing But Decaying Sense ज्ञात होता है। ये तथ्य जैनदर्शन में हजारों वर्ष पूर्व स्मति ज्ञान विषय में पूर्ण वैज्ञानिकता से परिभाषित एवं विश्लेषित गये हैं, जैसे इन वैज्ञानिकों ने उसी की हूबहू नकल की हो ऐसा लगता है। इससे ज्ञात होता है कि हमारा दर्शन कितना समृद्ध एवं कितना श्रेष्ठ है। अब देखिये-जैन तत्त्वार्थ में स्मृति का कितना स्पष्ट एवं वैज्ञानिक विवेचन किया गया है। प्रात्मा में यह संस्कार दृढ़ होने के पश्चात् कालान्तर में ऐसे किसी भी पदार्थ के दर्शनादिक से पूर्व के संस्कार जागृत होने पर यथा 'यह वही है जो मैंने पूर्व में प्राप्त किया था या देखा था या मेरी अनुभूति में आया था' इस प्रकार के रूप का जो ज्ञान होता है उसे स्मृति ज्ञान कहते हैं। जातिस्मरण ज्ञान का समावेश इसी स्मृति में हुआ करता है तथा इसी स्मृतिज्ञान के कारण वासना (संस्कार) स्मृति में होती है। जो संस्कार आत्मा में नहीं पड़े होंगे, उनका कभी स्मरण भी नहीं होगा। वासना (संस्कार) उपयोगात्मक अविच्युति धारणा से उत्पन्न होती है ।। १५ ।।