Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tikat tatha Hindi Vivechanamrut Part 01 02
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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१११५ ] प्रथमोऽध्यायः
[ ३७ * सूत्रार्थ-अवग्रह (सामान्य), ईहा (बोध), अपाय (विचारणा) और धारणा (निर्णय) ये चार मतिज्ञान के भेद हैं ।। १५ ।।
विवेचन पूर्वोक्त सूत्र में इन्द्रियनिमित्तक और अनिन्द्रियनिमित्तक यह दो प्रकार का जो मतिज्ञान कहा है, अब उसमें प्रत्येक के चार-चार भेद हैं। उक्त अवग्रहादि प्रत्येक को पाँच इन्द्रियों और छठे मन के साथ गिनने से मतिज्ञान के चौबीस भेद हो जाते हैं । यथा--
(१) स्पर्शेन्द्रिय
| अवग्रह ।
ईहा
| अपाय ।
अपाय
धारणा
(२) रसनेन्द्रिय
(३) घ्राणेन्द्रिय (४) चक्षुरिन्द्रिय | (५) श्रोत्रेन्द्रिय
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|
"
|
"
(६)
मन
अवग्रहादि के लक्षण
(१) अवग्रह-इन्द्रियों के द्वारा यथायोग्य विषयों का अव्यक्त रूप से पालोचनात्मक अवधारण-ग्रहण होता है, उसे 'अवग्रह' कहते हैं । अर्थात्-इन्द्रिय के साथ विषय का सम्बन्ध होते हुए 'कुछ है' ऐसा अव्यक्त बोध होता है। उस अव्यक्त बोध को ही प्रवग्रह कहा जाता है । अवग्रह, अवधारण, पालोचन और ग्रहण, ये सर्व एक ही अर्थ के वाचक शब्द हैं। विशेष कल्पना रहित सिर्फ सामान्य ज्ञान को अवग्रह कहते हैं । इस ज्ञान से यह मालूम नहीं होता है कि यह स्पर्शादि किस चीजवस्तु का है । इसलिए यह अवग्रह ज्ञान अव्यक्त ज्ञान है।
(२) ईहा-अवग्रह से ग्रहण किये हुए एकदेशविषयक ज्ञान को विशेष रूप से जानने के लिए अनुगम अर्थात् निश्चय करने की चेष्टा विशेष को ईहा कहते हैं । वास्तव में अवगृहीत विषय पर 'ईहा' की क्रिया होती है। अवगृहीत विषय के सम्बन्ध में अधिक विशेष जानने की स्पृहा का नाम ही ईहा है । अर्थात् अवगृहीत-विषय-प्रणिधान या विचारणा को ईहा कहते हैं। अर्थात् अवग्रह के द्वारा 'कुछ है' ऐसा बोध होने के बाद 'वह क्या है ?' उसका निर्णय करने के लिए होने वाली विचारणा को 'ईहा' कहा जाता है। ईहा, ऊहा, तर्क, जिज्ञासा, परीक्षा और विचारणा ये सर्व शब्द एक ही अर्थ के वाचक होने से समानार्थक हैं। इस ज्ञान से प्रात्मा में विचारशक्ति उत्पन्न होती है, जैसे कि 'रज्जुः सर्पो वा ?' क्या यह स्पर्श रज्जु यानी डोरी का है या सर्प का है ? जो सर्प होता तो इतनी जोर की ठोकर लगने पर वह फूकार किये बिना नहीं रहता; इस विचारणा को ईहा कहते हैं।