Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tikat tatha Hindi Vivechanamrut Part 01 02
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
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आगम ग्रन्थों में मतिज्ञान के श्रुतनिश्रित और श्रुतनिश्रित इस तरह दो भेद कहे हैं । पर के उपदेश-प्रेरणा से या आगमग्रन्थादिक से जो कुछ भी श्रवण करने में या जानने प्रा जाय वह श्रुत है । इस प्रकार के श्रुत से संस्कारित हुआ मतिज्ञान श्रुतनिश्रित कहा जाता है तथा पूर्वे कभी भी जानकारी न होने पर विशिष्ट प्रकार के मतिज्ञान के क्षयोपशम से उत्पन्न हुई ऐसी मति को निश्रित कहते हैं ।
मतिज्ञान के पूर्व कहे हुए ३३६ भेद श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के हैं तथा अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान के भी चार भेद हैं, जिनके नाम क्रमश: इस प्रकार हैं - ( १ ) श्रौत्पातिकी, (२) वैनयिकी, (३) कामिकी और ( ४ ) पारिणामिकी |
( १ ) श्रौत्पातिकी - किसी कार्य में विशिष्ट प्रसंग उपस्थित होने पर उस प्रसंग को पार पाड़ने में तत्काल एकाएक उत्पन्न हुई मति बुद्धि को 'श्रौत्पातिकी' कहते हैं । जैसे- श्री अभयकुमार मन्त्रीश्वर की तथा रोहक श्रादि की प्रौत्पातिकी मति - बुद्धि थी ।
(२) वैनयिकी- - गुरु आदि की विनय - वेयावच्च सेवा-भक्ति आदि करने से प्राप्त हुई मतिबुद्धि को 'वैनयिकी' कहते हैं। जैसे कि - निमित्तज्ञ शिष्य आदि की मति - बुद्धि 'वैनयिकी' है ।
(३) कार्मिकी - काम करते-करते अभ्यास करते-करते प्राप्त हुई मति बुद्धि को 'कामिकी' कहते हैं । जैसे - चोर तथा खेडूत आदि की मति-बुद्धि 'कार्मिको' है ।
(४) पारिणामिकी - समय जाते हुए अनुभव से प्राप्त होने वाली मति बुद्धि को 'पारिणामिकी' कहते हैं । जैसे- श्री वज्रस्वामी महाराज आदि की मति-बुद्धि पारिणामिकी थी ।
पूर्वोक्त श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के ३३६ भेदों में प्रश्रुतनिश्रित मतिज्ञान के श्रौत्पातिकी, वैनयिकी, कार्मिकी तथा पारिणामिकी इन चार भेदों को मिलाने से मतिज्ञान के कुल ३४० भेद होते हैं । वास्तविक रीति से मतिज्ञान के क्षयोपशम की विचित्रता के तारतम्यत्व भाव से असंख्य भेद होते हैं ॥१६॥
* श्रुतज्ञानस्य स्वरूपं भेदाश्च
श्रुतं मतिपूर्वं द्वयनेकद्वादशभेदम् ।। २० ।।
* सुबोधिका टीका
श्रुतज्ञानं मतिज्ञानपूर्वकं भवति । श्रुतं प्राप्तवचनादिकं जिनवचनमित्यनर्थान्तरम् । तच्च द्विविधं अङ्गबाह्य अङ्गप्रविष्टं चेति । अनयोः प्रथमस्य अनेके भेदाः, द्वितीयस्य द्वादशभेदाः सन्ति । अङ्गबाह्यमनेकविधम् । तद्यथा - सामायिकं, चतुविंशतिस्तवः, वन्दनं प्रतिक्रमणं, कायव्युत्सर्गः, प्रत्याख्यानमिति षडावश्यकम् । तथा दशवैकालिकं, उत्तराध्ययनं, दशाश्रुतस्कन्धः, कल्प व्यवहारौ, निशीथसूत्रं चेत्यादि महर्षि - भाषिताङ्गबाह्यश्रुतेत्यनेकविधं ज्ञेयम् । श्रङ्गप्रविष्टश्रुतस्य द्वादशभेदाः सन्ति । तथाहि