Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tikat tatha Hindi Vivechanamrut Part 01 02
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
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सूत्रार्थ-श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है। उसके दो भेद हैं-अङ्गबाह्य और अङ्गप्रविष्ट । अङ्गबाह्य श्रुतज्ञान के अनेक भेद हैं और अङ्गप्रविष्ट श्रुतज्ञान के बारह भेद हैं ।। २० ।।
ॐ विवेचन श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक ही होता है । श्रुत, प्राप्त वचन, पागम, उपदेश, एतिह्य, आम्नाय, प्रवचन तथा जिनवचन ये सर्व एकार्थ वाचक शब्द हैं। श्रुतज्ञान के दो भेद हैं-अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट । इनमें अंगबाह्य के अनेक भेद हैं तथा अंगप्रविष्ट के बारह भेद हैं। प्रश्न--अंगबाह्य श्रुतज्ञान के अनेक भेद कौन से हैं ? उत्तर--अंगबाह्यश्र तज्ञान के अनेक भेद इस प्रकार हैं(१) सामायिक, (२) चतुर्विंशतिस्तव, (३) वन्दन, (४) प्रतिक्रमण, (५) कायव्युत्सर्ग और (६) प्रत्याख्यान; ये षड़ावश्यक अंगबाह्य हैं । तदुपरान्त-दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, दशाश्रुतस्कन्ध, कल्प, व्यवहार तथा निशीथ इत्यादि शास्त्र भी अंगबाह्य आगम सूत्र हैं।
प्रश्न--प्रगप्रविष्टश्रुतज्ञान के बारह भेदों के क्या नाम हैं ?
उत्तर--अंगप्रविष्टश्रु तज्ञान के बारह भेदों के नाम इस प्रकार हैं--(१) आचारांग, (२) सूत्रकृतांग, (३) स्थानांग, (४) समवायांग, (५) उपाख्याप्रज्ञप्ति-पंचमांग (भगवती), (६) ज्ञाताधर्मकथांग, (७) उपासकदशांग, (८) अन्तकृतदशांग, (६) अनुत्तरोपपातिकदशांग, (१०) प्रश्नव्याकरण, (११) विपाक और (१२) दृष्टिवाद ।
प्रश्न--मतिज्ञान और श्रुतज्ञान में क्या विशिष्टता है ?
उत्तर--मतिज्ञान कारण है और श्रुतज्ञान कार्य है। मतिज्ञान से श्रु तज्ञान उत्पन्न होता है। इसलिए मतिज्ञानपूर्वक श्रुतज्ञान कहा जाता है। श्रुतज्ञान का विषय प्राप्त करने से पहले मतिज्ञान अवश्य ही होना चाहिए। श्रुतज्ञान को पूर्णता के लिए मतिज्ञान सहायक है। मतिज्ञान श्रुतज्ञान का बाह्यकारण है। वास्तविक कारण तो क्षयोपशम है। किसी भी विषय-पदार्थ का मतिज्ञान होते हुए भी क्षयोपशम के अभाव से तद् विषयक श्रुतज्ञान नहीं भी होता है। जैसे मतिज्ञान का कारण मतिज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होता है, वैसे श्रुतज्ञान का कारण श्रुतज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होता है। इसलिए दोनों का भेद यथार्थ समझ में नहीं पाता। मतिज्ञान वर्तमानकाल विषयी है और श्रतज्ञान त्रिकालविषयी है। इसके अलावा दूसरा अन्तर यह भी है कि-मतिज्ञान का शब्दोल्लेख नहीं होता है और श्रतज्ञान का शब्दोल्लेख होता है। पुन: मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों में पाँचों इन्द्रियों और मन की अपेक्षा होते हुए भो मतिज्ञान से श्रुतज्ञान का विषय विशेष है। इतना ही नहीं, किन्तु स्पष्टता यानो स्पष्टीकरण भी अधिक है। कारण कि-श्रुतज्ञान में मनोव्यापार की मुख्यता होने से जोव-यात्मा के विचार-विमर्श के अंश अधिक और स्पष्ट होते हैं। ये दोनों एक-दूसरे के बिना नहीं रह सकते हैं।
प्रश्न-श्रुतज्ञान के दो भेद, अनेक भेद और बारह भेद किस तरह से होते हैं ?
उत्तर-श्रुतज्ञान अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट रूप से दो प्रकार का है तथा इसमें अंगबाह्य सूत्र के उत्कालिक और कालिक इत्यादि अनेक प्रकार यानी अनेक भेद हैं। एवं अंगप्रविष्ट सूत्र के प्राचारांगादि बारह भेद हैं।