Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tikat tatha Hindi Vivechanamrut Part 01 02
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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१।१२ ]
प्रथमोऽध्यायः केवलरूपं] तत्प्रत्यक्षं प्रमाणरूपं भवति । यतः इन्द्रियनिमित्तं विनैव प्रात्मनः प्रत्यक्षत्वेन एतानि त्रीणि ज्ञानानि प्रत्यक्षप्रमाणे समायान्ति । यद् द्वारा पदार्थः ज्ञातो भवति तद् प्रमाणं उच्यते । अनुमानोपमानागमार्थापत्तिसम्भवाभावानामपि पृथक्त्वेन प्रमाणत्वं केचिद् मन्यन्ते, किन्तु तेषां अनुमानादीनां पदार्थानां निमित्तभूतत्वेन मतिश्रुतज्ञानरूपे परोक्षप्रमाणे एव अन्तर्भाव स्वीकृत्य द्विविधं परोक्ष-प्रत्यक्षरूपमेव प्रमाणं मन्यते नत्वधिकम् ।। १२ ।।
___ सूत्रार्थ-शेष रहे हुए अवधि आदि तीनों ज्ञान प्रत्यक्ष हैं। अर्थात्-पूर्वोक्त मति-श्रुत इन दोनों ज्ञान से अन्य तीन ज्ञान (अवधि, मनःपर्यय और केवल) ये प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। कारण कि ये इन्द्रिय और मन की मदद बिना केवल आत्मा के सापेक्ष हैं ।। १२ ।।
विवेचन पूर्व कहे हुए मतिज्ञान और श्रुतज्ञान को छोड़कर यानी बाकी के अवधि, मनःपर्यय और केवल ये तीनों ज्ञान प्रत्यक्षप्रमाण रूप हैं। क्योंकि ये अतोन्द्रिय हैं। जिसके द्वारा वस्तु-पदार्थों को जाना जाय उसको प्रमारण कहते हैं । यहाँ पर प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो ही प्रमाण बताये हैं । अनुमान, उपमान, आगम, अर्थापत्ति, सम्भव और अभाव इन प्रमाणों को भी कोई-कोई मानते हैं, किन्तु यहाँ इन्हें ग्रहण नहीं करते हैं। कारण यह है कि ये सभी इन्द्रियों पोर पदार्थों के निमित्तभूत होने से मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान रूप परोक्षप्रमाण में अन्तर्भूत हो जाते हैं।
* प्रश्न-न्याय प्रादि दर्शनग्रन्थों में और लोक में भी चक्षु प्रादि इन्द्रियों द्वारा होने वाला मतिज्ञान प्रत्यक्षप्रमाण कहा गया है। आप उसी मतिज्ञान को परोक्षप्रमाण कहते हो, इसका क्या कारण है ?
उत्तर-आध्यात्मिक दृष्टि से मतिज्ञान परोक्षज्ञान है। वह इन्द्रियों की सहायता से होता है, इसलिए मतिज्ञान परोक्षप्रमाण रूप ज्ञान कहा गया है। अक्ष शब्द का अर्थ जैसे इन्द्रिय होता है, वैसे आत्मा भी होता है। न्याय आदि दर्शनग्रन्थों में तथा लोक में अक्ष शब्द का अर्थ इन्द्रिय स्वीकार कर मतिज्ञान को प्रत्यक्ष ज्ञान कहा है। इस दृष्टि से जैनदर्शन भी मतिज्ञान को न्यायदर्शन के ग्रन्थों में प्रत्यक्ष ज्ञान स्वरूप में स्वीकार करता है। जैन न्यायग्रन्थों में 'प्रमाणमीमांसा' में मतिज्ञान का सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष रूप में कथन किया गया है। श्रुतज्ञान के सम्बन्ध में तो चाहे आध्यात्मिक दृष्टि हो कि व्यावहारिक दृष्टि हो, दोनों ही दृष्टि से श्रुतज्ञान को परोक्ष ही कहा है। क्योंकि श्रुतज्ञान मतिपूर्वक और पर के उपदेश से होता है। शेष यानी बाकी के अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये तीनों ज्ञान इन्द्रिय तथा मन की सहायता के बिना ही सिर्फ आत्मिक योग्यता के बल से उत्पन्न होने के कारण प्रत्यक्ष समझने चाहिए।
सामान्य रूप से प्रत्यक्ष ज्ञान के दो प्रकार-भेद हैं-एक देशप्रत्यक्ष और दूसरा सकलप्रत्यक्ष अवधिज्ञान को और मनःपर्ययज्ञान को देशप्रत्यक्ष कहते हैं, कारण कि-दोनों का विषय नियत और