Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tikat tatha Hindi Vivechanamrut Part 01 02
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti

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Page 47
________________ १।४ ] प्रथमोऽध्यायः अष्टधाष्टगुणात्मत्वादष्ट कर्मवृतोऽपि पदार्थनवकात्मत्वान्नवधा दशजीवभिदात्मत्वादिति * सूत्रार्थ - ( १ ) जीव, संवर, (६) निर्जरा और (७) दशधा चिन्त्यं [ ११ च 1 तु सः । यथागमम् ।। २३७ ।। (षट्पदम् ) (४) बन्ध, (५) (२) प्रजीव, (३) श्रात्रव, मोक्ष ये सात तत्त्व हैं ॥ ४ ॥ 5 विवेचन फ _ranaप्रकरणम् इत्यादि कई ग्रन्थों में पुण्यतत्त्व और पापतत्त्व को पृथक् मानकर नौ तत्त्व कहे हैं, किन्तु यहाँ तो इनको आस्रवतत्त्व और बन्धतत्त्व के अन्तर्गत मानकर सात ही तत्त्व प्रतिपादित किये गये हैं । मूल में तत्त्व दो ही आते हैं । जोवतत्त्व और अजीवतत्त्व | सर्व सामान्य की अपेक्षा जीवद्रव्य का एक ही भेद माना है और अजीवद्रव्य के पाँच भेद माने हैं जिनके नाम हैं - ( १ ) पुद्गल, (२) धर्म, (३) अधर्म, (४) आकाश और (५) काल । इन्हीं छह को षड्द्रव्य कहने में प्राता है । किन्तु इतने से ही मोक्षमार्ग का स्पष्टीकरण नहीं होता। इसलिए सात तत्त्वों को भी अवश्य जानना चाहिए। ये सातों तत्त्व जीवद्रव्य और अजीवद्रव्य के संयोग से ही निष्पन्न होते हैं । संक्षेप में इन सात तत्त्वों का स्वरूप इस प्रकार है - तत्त्व = तत् + त्व, उसमें 'तत्' शब्द है और 'त्व' प्रत्यय है । तत् यानी ते = अर्थात् लोक और अलोक रूप विश्व । ऐसे विश्व का त्व यानी परणा, अर्थात् ऐसे विश्व जगत् का मूल वह 'तत्त्व' है । अर्थात् - इस विश्व में जो कोई भिन्न-भिन्न पदार्थ दिखाई देते हैं और प्रत्येक प्राणी जिस तरह जीवित है तथा जिस तरह जीना चाहिए, इन प्रत्येक के जो मूल पदार्थ हैं, उन्हें 'तत्त्व' कहा जाता है । जैसे- हम जितने जीवित जीवों को देख रहे हैं, उन सभी का मूल जीव तत्त्व है; वैसे हम घट और पट इत्यादि जितनी जड़ वस्तुएँ भी देख रहे हैं, उन सभी का मूल जीव तत्त्व है । * तत्त्वों का सामान्य अर्थ ( १ ) जीव - 'जीवति प्राणान् धारयतीति जीब: ।' जो जीवे अर्थात् प्रारणों को धारण करे वह 'जीव' कहलाता है । अर्थात् - जो चेतना गुरण से युक्त है या जो ज्ञान और दर्शन रूप उपयोग को धारण करने वाला है, वही जीव है। विश्व - लोक में वह मुख्य तत्त्व है, इसलिए इस तत्त्व को 'जीव तत्व' कहते हैं । इसमें देव, मनुष्य, तियंच और नरकगति के सर्व जीव आते हैं । मोक्ष में भी जितने जीव हैं, वे सभी जीवतत्त्व में ही आ जाते हैं । (२) प्रजीव - जो जीव के लक्षण से या जीव के स्वभाव से विपरीत हो अर्थात् चैतन्य लक्षण रहित हो और सुख एवं दुःख का अनुभव भी जिसको न हो, वह जड़ लक्षण वाला श्रजीव है । वही जीव तत्त्व कहा जाता है। जितने जड़ पदार्थ विश्व में हैं, वे सभी इसी अजीव तत्त्व में श्रा जाते हैं । जैसे—धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय तथा काल द्रव्य ।

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