Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tikat tatha Hindi Vivechanamrut Part 01 02
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti

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Page 62
________________ २६ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ १८ कादि भावानां कतमो भावो भवति ? तदुच्यते । प्रौदयिक-पारिणामिकभावौ द्वयं वयं प्रौपशमिकादित्रिषु भावेषु सम्यग्दर्शनं भवति । (८) अल्पबहुत्वम्-सम्यग्दर्शनादितत्त्वानां स्वामिनमाश्रित्य न्यूनाधिकस्य विचारणा, एतद् अल्पबहुत्वप्ररूपणाद्वाराद् भवति । अत्राह-सम्यग्दर्शनानां औपशमिकादित्रिषु भावेषु वर्तमानानां किं समानसङ्ख्यत्वमाहोस्विदल्पबहुत्वमस्तीति ? । तदुच्यते । औपशमिकादित्रिषु भावेषु औपशमिकसम्यग्दर्शनस्य सङ्ख्या सर्वस्तोकमस्ति । ततः क्षायिकसम्यग्दर्शनस्य सङ्ख्या असङ्ख्यातगुणी ज्ञेया। ततोऽपि क्षायोपशमिकसम्यग्दर्शनस्य सङ्ख्या असङ्ख्यातगुणी ज्ञातव्या। केवलिनः सिद्धाश्च जीवाः संमिल्य अनन्ताः एव । तस्माद् सम्यग्दृष्टयस्तु सङ्ख्या अनन्तगुणी ज्ञेयेति । एवं निखिलभावानां नामादिभिः न्यासं कृत्वा, प्रमाणादिभिरधिगमस्य कार्य सम्पन्नम् । अत्रोक्तं सम्यग्दर्शनम् । ज्ञानं चाऽपि वक्ष्यामः ।। ८ ।। * सूत्रार्थ-सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व; इन पाठ द्वारों से भी तत्त्वों का ज्ञान अर्थात् सर्व भावों का ज्ञान हो सकता है ।। ८ ।। 9 विवेचन जिस तरह पूर्वोक्त निर्देश आदि अनुयोग के छह द्वारों से जीवादितत्त्वों का ज्ञान होता है, उसी तरह इधर सत् आदि अनुयोग के पाठ द्वारों से भी जीवादि तत्त्वों का ज्ञान होता है। वे क्रमश: सत् आदि पाठों द्वार इस प्रकार हैं (१) सत्- यानी सत्ता-विद्यमानता। विश्व में विवक्षित वस्तु-पदार्थ विद्यमान है कि नहीं ? उसकी विचारणा इस सत्प्ररूपणा द्वार से होती है । (२) संख्या-यानी गणना । विवक्षित वस्तु-पदार्थ की या उसके स्वामी के अनुसार की संख्या-गिनती कितनी है ? उसकी विचारणा इस संख्याप्ररूपणा द्वार से होती है। (३) क्षेत्र—विवक्षित तत्त्व या उसके स्वामी कितने क्षेत्र में हो सकते हैं ? उसको इस क्षेत्रप्ररूपणा द्वार से जान सकते हैं। (४) स्पर्शन-यानी स्पर्शना । विवक्षित तत्त्व या उसके स्वामी कितने क्षेत्र को स्पर्श करते हैं ? उसका ज्ञान इस स्पर्शन प्ररूपणा द्वार से होता है । (५) काल-यानी समय । विवक्षित तत्त्व कितने काल-समय तक रहता है ? इसकी विचारणा इस कालप्ररूपणा द्वार से होती है। (६) अन्तर-यानी विरहकाल । विवक्षित तत्त्व की प्राप्ति होने के पश्चात्, उसका वियोग हो जाय तो कितने काल तक वियोग रहता है ? उसका ज्ञान इस अन्तरप्ररूपणा द्वार से होता है ।

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