Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tikat tatha Hindi Vivechanamrut Part 01 02
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
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गुणस्थानवर्ती प्रयोगी केवली भगवान् और संसारातीत सिद्ध भगवान् ये तीनों सादि अनन्त सम्यम्दृष्टि हैं ।
* प्रश्न -- सम्यग्दर्शन कितने प्रकार का है ?
उत्तर -- सम्यग्दर्शन हेतुभेद की अपेक्षा तीन प्रकार का कहा जा सकता है कारण, वह सम्यग्दर्शन को श्राच्छादित करने वाले दर्शनमोहनीय कर्म के क्षय से या उपशम से यद्वा क्षयोपशम से उत्पन्न होता है । इसलिए सम्यग्दर्शन भी तीन प्रकार का प्रतिपादित किया गया है । (१) क्षायिक सम्यग्दर्शन, (२) श्रौपशमिक सम्यग्दर्शन और (३) क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन ।
(१) दर्शनमोहनीय कर्म और क्रोधादि अनन्तानुबन्धी चार कषाय के क्षय होने से जो सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है, उसे 'क्षायिकसम्यग्दर्शन' कहते हैं ।
(२) दर्शनमोहनीय कर्म और क्रोधादि श्रनन्तानुबन्धी चार कषाय के उपशम होने से जो सम्यग्दर्शन प्रकट होता है, उसे 'श्रौपशमिकसम्यग्दर्शन' कहते हैं ।
(३) दर्शनमोहनीय कर्म और क्रोधादि श्रनन्तानुबन्धी चार कषाय के क्षय और उपशम दोनों के मर्यादित होने पर जो सम्यग्दर्शन उद्भूत होता है, उसे 'क्षायोपशमिकसम्यग्दर्शन' कहा गया है ।
इन तीनों में विशेषता यही है कि - प्रोपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक इनकी विशुद्धि क्रम से उत्तरोत्तर अधिक से अधिकतर होती है । अर्थात् श्रपशमिक सम्यग्दर्शन से क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन की विशुद्धि - निर्मलता अधिक है तथा क्षायोपशमिकसम्यग्दर्शन से क्षायिकसम्यग्दर्शन की विशुद्धि - निर्मलता अधिक है ।। ७ ।।
* सत्प्रमुखाष्टद्वारेभ्योऽपि तत्त्वानां विशिष्टरूपेण निर्देश:
सत् - संख्या -क्षेत्र - स्पर्शन - कालान्तर - भावाऽल्प - बहुत्वंश्च ॥ ८ ॥
* सुबोधिका टीका
सत्, सङ्ख्या, क्षेत्रं, स्पर्शनं, कालः, अन्तरं भावः, अल्पबहुत्वं चेति । एतैः सद्भूतपदप्ररूपणादिभिः प्रष्टभिः अनुयोगद्वारैरपि सर्वजीवादितत्त्वानां सम्यग्दर्शनादिकानां च ज्ञानं भवति । कथमितिचेदुच्यते - ( १ ) सत्ता विद्यमानता एव । सम्यग्दर्शनं किमस्ति नास्तीति ? अस्तीत्युच्यते । क्वास्ति ? प्रजीवेषु जीवेषु वा ।
जीवेषु तावन्नास्ति । जीवेष्वपि भाज्यमेव । तद्यथा - ' गतीन्द्रिय-काय - योग- कषायवेद-लेश्या-सम्यक्त्व-ज्ञान- दर्शन - चारित्राहारोपयोगेषु' इति त्रयोदशस्वनुयोगद्वारेषु यथासम्भवं सद्भूतप्ररूपणाऽवश्यमेव कर्त्तव्या । एतेन द्वारेण विवक्षितपदार्थस्य विचारणा भवति ।