Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tikat tatha Hindi Vivechanamrut Part 01 02
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
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जाना जा सके, उसे 'ज्ञान' कहा जाता है। अर्थात पदार्थों को समझाने की शक्ति जिसमें हो उसको ज्ञान कहते हैं । ज्ञान पदार्थ का बोधक है। जो ज्ञान प्रात्मा को मोक्षमार्ग की साधना के लिये उत्साही करता है, वही सम्यग्ज्ञान है। जो ज्ञान विश्व की वस्तुओं का सच्चा स्वरूप नहीं बताता है, वह ज्ञान मिथ्या-असत्यज्ञान अज्ञानरूप है ।
जैनदर्शन में सम्यग्ज्ञान के मुख्य पाँच भेद प्रतिपादित किये हैं-(१) मतिज्ञान-जीव-प्रात्मा को योग्य देश में रही हई नित्य वस्तु का पाँचों इन्द्रियों और मन के द्वारा जो ज्ञान होता है वह 'मतिज्ञान' कहा जाता है, इसमें मन और इन्द्रियों की सहायता से जीव-आत्मा में बोध होता है। इसका दूसरा नाम 'प्राभिनिबोधक' भी है। "अभिनिबुध्यते इति प्राभिनिबोधकम्"-जो सन्मुख रहे हुए नियत वस्तु-पदार्थ को जनाता है, उसको 'प्राभिनिबोधक ज्ञान' कहते हैं।
(२) श्रुतज्ञान-जीव-आत्मा को इन्द्रिय और मन के सहकार से शब्दार्थ की पर्यालोचना वाला (इस शब्द का यह अर्थ है, ऐसा) जो ज्ञान है, वह 'श्रतज्ञान' कहा जाता है। जिसमें मन और इन्द्रियों के सहयोग से शब्द और अर्थ का पर्यालोचन पूर्वक जीव-आत्मा में बोध होता है। शब्द और पुस्तकें भी बोध रूप भावश्रुत का कारण होने से 'द्रव्यश्रुत' हैं।
(३) अवधिज्ञान-जीव-प्रात्मा को इन्द्रिय और मन की अपेक्षा बिना रूपी द्रव्य का मर्यादापूर्वक जो ज्ञान होता है, वह 'अवधिज्ञान' कहा जाता है। इसमें इन्द्रिय और मन की अपेक्षा बिना अपनी आत्मशक्ति से मर्यादापूर्वक रूपी द्रव्य का बोध होता है, अरूपी द्रव्य का नहीं।
(४) मनःपर्ययज्ञान-इन्द्रिय और मन की अपेक्षा बिना ढाई द्वीप में रहे हुए संज्ञिपञ्चेन्द्रिय जीवों के मनोगत भावों को जो जानता है, वह 'मनःपर्यय (मनःपर्यव) ज्ञान' कहा जाता है। इसमें ढाई द्वीप में रहे हुए संज्ञिपंचेन्द्रिय जीवों के मन के विचारों का-पर्यायों का बोध होता है ।
__ (५) केवलज्ञान-तीनों कालों के लोक और अलोक का निखिल स्वरूप हस्त में रहे हुए आँवले की भाँति प्रत्यक्ष रूप में जो जोहता-देखता है, वह ज्ञान 'केवलज्ञान' कहा जाता है। तीनों कालों के सर्व द्रव्यों और सर्व पर्यायों का बोध होता है। केवलज्ञान यानी सम्पूर्ण ज्ञान, मतिज्ञानादिक से रहित असाधारण ज्ञान, समस्त प्रावरण से रहित शुद्ध-ज्ञान, भेद-प्रभेद रहित एक ज्ञान, एवं अनन्तज्ञान=सर्व द्रव्य-पर्यायों का बोध करने वाला अद्वितीयज्ञान; इत्यादि अनेक अर्थ केवलज्ञान के प्रतिपादित किये गये हैं ॥६॥
* मत्यादिपञ्चविधज्ञानानां प्रमाणाऽऽश्रित्य विचारणा *
तत् प्रमाणे ॥१०॥
* सुबोधिका टीका * तत् पूर्वोक्तं मत्यादिपञ्चविधमपि ज्ञानं द्वे प्रमाणे भवतः । तद्यथा-परोक्ष प्रत्यक्षं चैव । तत् पञ्चविधमपि ज्ञानं द्वयोः प्रमाणयोः विभक्तमस्ति । येन वस्तुस्वरूपस्य परिच्छेदनं भवेत्, तं 'प्रमाणं' कथ्यते । एतद् विषये शास्त्रज्ञेषु भिन्नभिन्नरूपेण