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( VIII )
मोहनलाल दलीचन्द देसाई ने अपने 'जैन साहित्य नो इतिहास' नामक पुस्तक के ६४५ पृष्ठांक पर उपाध्याय यशोविजय की उपलब्ध अप्रकाशित कृतियों में 'स्याद्वादमंजूषा' नामक टीका का उल्लेख किया है ।
मैंने इस प्रकाशित कृति का अवलोकन नहीं किया है किन्तु अध्यात्मसार, ज्ञानसार आदि ग्रन्थों की विशेषता को विधिवत् जानने का सौभाग्य प्राप्त होने के कारण विश्वास है कि 'स्याद्वाद - मंजूषा' नामक वृत्ति भी यशोविजयजी की दार्शनिक समन्वय साधना का बेजोड़ नमूना सिद्ध होगी । जैन संस्कृति एवं साहित्य के प्रचारकों से अनुरोध है कि वे उपाध्यायश्री की 'स्याद्वादमंजूषा' को प्रकाशित कर जिज्ञासु जगत् का कल्याण करें ।
* स्याद्वादबोधिनी
वर्तमान समय में संस्कृत व्याख्या सरल तथा सहजगम्य होनी चाहिए क्योंकि अध्ययन-अध्यापन के सन्दर्भ में पूर्ववत् अभ्यासक्रम अब नहीं दिखाई देता है । फलतः अध्येता की आधारशिला कमजोर होती जा रही है । ऐसी परिस्थिति में संस्कृत व्याख्याओं का सरलीकरण तथा हिन्दी भाषानुवाद, भावार्थ परमावश्यक हो गया है । प्राचार्यप्रवर श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी महाराज साहब संस्कृत - हिन्दी-गुजराती तीनों ही भाषाओं के ज्ञाता तथा उत्कृष्ट साहित्यकार हैं । धार्मिक श्रनुष्ठान, तपोनिष्ठा, जिनशासन - प्रभावना की महनीय उद्भावनाओं में अतीव व्यस्त होते हुए भी आपश्री सतत नवसाहित्य-सृजन में दत्तचित्त रहते हैं । प्रस्तुत 'स्याद्वादबोधिनी' आपके दार्शनिक ज्ञान का प्रसाद है ।