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XI )
• श्लोक १५-१६ तक बौद्धदर्शन के मतों की उद्भावना कर युक्तिपूर्वक तार्किक, सैद्धान्तिक विरोध प्रदर्शित किया है । वस्तुत: पदार्थों को एकान्त रूप से क्षणिक (क्षणध्वंसी) न मानकर उन्हें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य सहित स्वीकार करना चाहिए।
• श्लोक २० की टीका में चार्वाक के सिद्धान्तों का सत्तर्क द्वारा खण्डन किया गया है ।
• श्लोक २१ से २६ की टीका में स्वपक्ष-समर्थनपूर्वक स्याद्वादसिद्धि की सुदृढ़ अभिव्यक्ति है ।
• श्लोक ३०-३२ तक भगवान महावीर की स्तुति तथा अनेकान्तवाद में ही लोकोद्धारक शक्ति है, अनेकान्तवाद स्याद्वाद के बिना तत्त्वार्थज्ञान सम्भव नहीं है; यह प्रतिपादित है ।
भाषानुवाद आचार्यश्री ने भाषानुवाद करते हुए 'स्याद्वादबोधिनी' का अक्षरश: अनुवाद नहीं किया क्योंकि संस्कृत भाषा का प्रवाह तथा टीका की शैली कुछ विलक्षण है। हिन्दी भाषा में मूलार्थ कहने के लिए एक अलग प्रकार की भावसम्प्रेषण कला अपेक्षित है, जो हिन्दी पाठकों को सहज ही बोधगम्य हो। आचार्यश्री ने भाषानुवाद. भावार्थ प्रादि के माध्यम से गहन दार्शनिक विषय को बोधगम्य बनाने का सफल प्रयास किया है। आवश्यक टिप्पणी भी हितकारिणी है।