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• श्लोक संख्या ११ व १२ की टीका में पूर्वमीमांसकों के मौलिक सिद्धान्तों पर विशद विवेचन किया गया है। विषय को सरल बनाने में प्राचार्यश्री की भाषा एवं हृदयस्पर्शी शैली सुतरां प्रशंसनीय है। यहाँ ज्ञान को स्व-पर प्रकाशक मानने का आग्रह है क्योंकि ज्ञान को स्व-पर प्रकाशक न मानने से अनेक दोष सम्भावित हैं।
• श्लोक संख्या १३ की स्याद्वादबोधिनी व्याख्या में अद्वैतवादी वेदान्तदर्शन के द्वारा प्रतिपादित मायावाद का खण्डन है तथा प्रत्यक्ष प्रमाण विधि-निषेधात्मक रूप से प्रतिपादित है।
• श्लोक १४ की व्याख्या में एकान्त सामान्य तथा एकान्तविशेष वाच्यवाचक भावना का खण्डन तथा स्यात् सामान्य, स्यात् विशेष वाच्य-वाचक का समर्थन समीचीन शैली में प्रस्तुत कर विषय को बोधगम्य बनाया गया है। यहाँ अन्य द्रव्यार्थिकनय आदि नयों का विमर्श परिशीलनीय है।
• श्लोक १५ की व्याख्या में सांख्यमत की समीक्षा करते हुए प्रस्तुत किया गया है कि चेतन पुरुष को ज्ञानशून्य मानना नितान्त सिद्धान्तविरुद्ध है। बुद्धि (महत्) को जड़ स्वीकार करना कैसे उचित हो सकता है ? अहंकार को प्रात्मगुण स्वीकार करना चाहिए, बुद्धि का नहीं। इस प्रकार अनेक सांख्यमतों का विमर्श यहाँ गतार्थ हो जाता है।