________________ [ 33 मैं देख नहीं पाया तथापि सिंहावलोकनन्याय से देख गया / कहीं-कहीं अर्थ की दृष्टि से विचारणा-सापेक्ष स्थल थे और 'वीरस्तव' का अनुवाद पर्याप्त परिश्रमपूर्वक करने पर भी यत्र-तत्र सन्तोषकारक प्रतीत नहीं हुआ, अतः आवश्यक सूचनाओं के साथ प्रेसकॉपी अनुवादक को प्रेषित की। उन्होंने भी पुनः अपेक्षित सशोधन-परिवर्धन किया, तथापि पुनरवलोकन की अपेक्षा रखने योग्य श्लिष्ट कृति होने से इस विषय का कोई सुयोग्य विद्वान् इस अनुवाद को सूक्ष्मदृष्टि से देख ले और अशुद्ध एवं शंकास्पद जो स्थल हों उन्हें निःसंकोच बतलाये अथवा इसका सम्पूर्ण अनुवाद पृथक रूप से करके प्रेषित करने की महती कृपा करे तो अत्यन्त आनन्द होगा तथा उसके द्वारा इसके पश्चात् मुद्रित होनेवाला गुजराती अनुवाद पाठकों को प्रमाणितरूपसे दिया जा सकेगा। प्रकाशन के लिये मैंने प्राथमिक योजना इस प्रकार बनाई थी कि प्रत्येक श्लोक के नीचे गुजराती और हिन्दी अनुवाद दिया जाए जिससे मेरे गुजराती दानदाता एवं पाठकों को पूर्ण सन्तोष हो, किन्तु गुजराती अनुवाद के लिये मैं समय निकालने की स्थिति में नहीं था। दूसरे के द्वारा भाषान्तर करवाने का प्रयास किया किन्तु उसमें पर्याप्त समय लगता और सुयोग्य अनुवाद न हो तो उसका कोई फल नहीं / ऐसी स्थिति में अभी तो हिन्दी अनुवाद से ही सन्तोष किया है / भविष्य में यथाशक्ति शीघ्र गुजराती अनुवाद करवाकर इसका प्रकाशन किया जाए इसके लिए अवश्य प्रयत्नशील रहूँगा। कोई संस्कारी भाषा के लेखक मुनिराज अथवा कोई विद्वान् ऐसे उपकारक कार्य को करने के लिये तैयार हों, तो वे मेरे साथ अवश्य पत्र-व्यवहार करें ऐसी मेरी विनम्र प्रार्थना है।