________________ 88 ] श्रियं लभन्ते च विशृङ्खलाः खला, इतीदमुच्चः कलिकालचेष्टितम् // 6 // हे देव ! दुर्जन लोग उत्तम मार्ग की स्थिति को नहीं जानते हैं, और बिना समझे ही धृष्ट होकर राजाओं की आराधना करते हैं तथा स्वच्छन्द होकर धन प्राप्त करते हैं, यह कलिकाल का प्रभाव अमीषु तीर्थेश ! खलेषु यत् पटु-, भवद्भुजिष्यस्तदिहासि कारणम् / ' हविर्भुजां हेतिषु यन्न दह्यते, करः परस्तत्र गुणो महामणेः॥७॥ हे तीर्थङ्कर ! इन दुष्टों के रहते हुए भी जो आपका सेवक सकुशल रहता है उसमें आप ही कारण हैं। क्योंकि अग्नि की ज्वालाओं में हाथ रख देने पर भी यदि वह जलता नहीं है तो वहां महामणि का गुण ही प्रधान होता है। अर्थात् आप उस महामणि के समान हैं जिसके आश्रय से कोई दुष्ट धारक का कुछ नहीं बिगाड़ सकता // 7 // कलो जलौघे बहुपङ्कसङ्करे, गुणवजे मज्जति सज्जनाजिते / प्रभो! वरीति शरीरधारिणां, तरीव निस्तारकरी तव स्तुतिः // 8 // हे प्रभो ! बहुत पापरूप पङ्क से युक्त इस कलिरूप समुद्र में सज्जनों के द्वारा उपार्जित गुणों का समूह जब डूब जाता है तो प्राणियों का उद्धार करनेवाली आपकी स्तुति ही नौका बन जाती है अर्थात् आपकी स्तुति भवसागर से पार करनेवाली है / / 8 / / खलः किमेतः कलिकाललालितविपश्चितां नाथ ! यदि प्रसीदसि / पराक्रमः कस्तमसां महीयसां, तनोति भासं महसां पतिर्यदि // 6 //