________________ [ 231 हैं वे मेरी अपनी. सूझ नहीं है, क्योंकि इसके प्रयोग के समय स्वयं सरस्वती करबद्ध हो विद्वानों से निवेदन किया करती थीं कि वे निर्विरोधभाव से इस ग्रन्थ को समझने का कष्ट करें अतः यदि कोई त्रुटि प्रतीत हो तो उस पर क्रोध न कर सिद्धान्तानुसार उसका संशोधन कर लें // 107 // (शिखरिणी छन्द) प्रबन्धाः प्राचीनाः परिचयमिताः खेलतितरां, नवीना. तर्काली हृदि विदितमेतत् कविकुले / असौ जैनः काशीविबुधविजयंप्राप्तविरुदो, मुदो यच्छत्यच्छः समयनयमीमांसितजुषाम् // 108 // यह विद्वत्समाज को ज्ञात है कि इस स्तोत्रकार ने पुराने सभी शास्त्रग्रन्थों का समीचीन परिचय प्राप्त किया है और साथ ही इसके हृदय में नई-नई तर्कमालाएँ निरन्तर नृत्य करती रहती हैं। यही कारण है कि ज्ञान और चारित्र से स्वच्छ यह जैन स्तोत्रकार (यशोविजय उपाध्याय) काशी के विद्वानों पर विजयप्राप्त, न्याय-विशारद के विरुद से विभूषित हो, समय और नय की मीमांसा करनेवाले मनीषियों को प्रसन्न करने के निमित्त इस स्तोत्र की रचना में उद्यत हुआ // 108 // (शार्दूलविक्रीडित छन्द) गच्छे श्रोविजयादिदेवसुगुरोः स्वच्छे गुणानां गुणः, प्रौढिं प्रौढिमधाम्नि जीतविजयप्राज्ञाः परामैयरुः / तत्सातीर्थ्यभृतां नयादिविजयप्राज्ञोत्तमानां शिशुस्तत्त्वं किञ्चिदिदं यशोविजय इत्याख्यामृदाख्यातवान् // 10 //