________________ [ 226 अतस्त्वद्धयानायाध्ययनविधिनाम्नायमनिशं, * समाराध्य श्रद्धां प्रगुरणयति बद्धाञ्जलिरयम् // 103 // जैनशासन का यह स्पष्ट सिद्धान्त है कि जो मनुष्य गुण और पर्यायों के रूप में भगवान् जिन के साथ अपने तादात्म्य का सतत अनुध्यान करता है वह भगवान् के स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। इस लिये प्रकृत स्तव के रचयिता “पं० श्रीयशोविजयजी उपाध्याय" आगम का विधिपूर्वक अध्ययन कर बद्धाञ्जलि हो, अहर्निश अपनी श्रद्धा का सम्भरण करने में संलग्न हैं जिससे वे अपेक्षित रूप में भगवान् का ध्यान कर सकें // 103 // . विवेकस्तत्त्वस्याप्ययमनघसेवा तव. भवस्फुरत्तृष्णावल्लोगहनदहनोद्दाममहिमा। हिमानीसम्पातः कुमतनलिने सज्जनदृशां, सुधापूरः क्रूरग्रहहगपराधव्यसनिषु // 104 // प्रस्तुत स्तोत्र की रचना के रूप में तत्त्व का यह विवेचन पाप से मुक्त भगवान् महावीर की सेवा है। संसार में निरन्तर पनपनेवाली तृष्णा लता के जंगल को जलानेवाली असाधारण सामर्थ्यशाली अग्नि है। कुमतरूपी कमल के लिये हिमपात है / सज्जनों के नेत्र को निर्मल बनानेवाला अमृत का प्रवाह है / और जैनशासन के उल्लङ्घनरूप अपराध के व्यसनी जनों के लिये क्रूर ग्रह की विपत्कारी दृष्टि है // 104 // कुतर्के ख़स्तानामतिविषमनेरात्म्यविषय-' स्तवैव स्याद्वादस्त्रिजगदगदङ्कारकरुणा। इतो ये नैरुज्यं सपदि न गताः कर्कशरुजस्तदुद्धारं कर्तुप्रभवति न धन्वन्तरिरपि // 105 //