Book Title: Stotravali
Author(s): Yashovijay
Publisher: Yashobharati Jain Prakashan Samiti

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Page 343
________________ 250 ] __ जिनकी विद्या के समान हो आश्चर्यकारिणी मुखाकृति है और मुखाकृति के समान (प्रसन्न-गम्भीर) परम पवित्रं कान्ति है तथा उस परम-पवित्र कान्ति के समान ही सब दिशाओं में कीर्ति व्याप्त है, ऐसे पुण्यमूर्ति भगवान् श्रीपार्श्वनाथ जगत् की रक्षा करें // 8 // सेवा मुखस्याब्जधिया विधातुं, समागतं हंसयुवद्वयं किम्। यस्यालसच्चामर-युग्ममुच्चैः, पावः स वः पुण्यनिधिः पुनातु // 6 // जिन भगवान् के आसपास दोनों ओर ऊपर के भाग में दो चामर सुशोभित हो रहे हैं और उन्हें देखकर ऐसा लगता है कि "भगवान् के मुख को कमल समझकर उसकी सेवा करने के लिये ये दो हंसयुवक तो नहीं आये हैं ?" ऐसे 'चामर-युगल-मण्डित' भगवान् श्रीपार्श्वनाथ आपको पवित्र करें / / 6 // स्तवीमि तं पार्श्वजिनं यदीय-पादाग्रजानन्नखरत्नदीपम् / स्थातुं रजन्यामपि नावकाशं, तमःसमूहो लभते कदापि // 10 // जिनके चरणों के अग्रभाग पर चमकते हुए नखरूपी दीपों से (व्याप्त प्रकाश के समक्ष) अन्धकार का समूह (दिन में तो क्या) रात्रि में भी रहने के लिये कभी भी स्थान नहीं पाता। उन पार्वजिनेश्वर की मैं स्तुति करता हूँ // 10 // ___ [अनुष्टुप्] विपति स्फूर्तिमन्मूर्तिः कामं वामासुतः सताम् / प्रययुः स्वर्द्रमा दूरे यवदान्यत्वनिजिताः // 11 // जिनकी दानवीरता से पराजित-लज्जित होकर कल्पवृक्ष (भी स्वयं) दूर स्वर्ग में चले गये, ऐसे तेजोमयस्वरूप, वामादेवी के पुत्र भगवान् श्रीपार्श्वनाथ सज्जनों की कामनाएँ पूर्ण करते हैं / / 11 / /

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