Book Title: Stotravali
Author(s): Yashovijay
Publisher: Yashobharati Jain Prakashan Samiti

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Page 351
________________ 258 ] देवता भी बड़ी प्रसन्नता से निवास करते थे अथवा कोई ऐसा स्थान नहीं था जहाँ देवमूर्तियाँ शोभित नहीं थीं // 14 // [शार्दूलविक्रीडित] तत्र त्रस्तकुरङ्गशावकदृशां नेत्राञ्चलैः पूरितस्मेराम्भोरुहतोरणस्पृहगृह-स्वेच्छापरे गरैः। शोभाशालिनि सज्जनाहतलसच्छार्दूलविक्रीडित क्रीडासज्जकविप्रपञ्चितगुरणे श्रीद्वीपसद्वन्दिरे // 15 // - वहाँ भयभीत हरिणशिशुओं के समान नेत्रोंवाली रमणियों के कटाक्ष से पूर्ण खिले हुए कमलों के तोरणों से स्पृहा करनेवाले भवनों में स्वेच्छापरायण नागरिकों से शोभाशाली, सज्जनों द्वारा पाहत, सिंह जैसे पराक्रम से शोभित, क्रीड़ा में तत्पर.कवियों द्वारा विस्तारपूर्वक वरिणत गुणवाले उस दीवबन्दर नामक नगर में- (मैं विज्ञप्ति भेज रहा हूँ यहाँ 22 वें पद्य से यह क्रिया सम्बद्ध है) // 15 / / [अनुष्टुप् छन्द भ्रमसंरम्भभृद्यानपात्रोपममुपाश्रयम् / समुद्रव्यवधि केतुमिवेष्टस्य बिति यत् // 16 // जो कि समुद्र में अन्तहित इष्ट की पताका के समान भ्रम के आडम्बर को धारण करनेवाले जहाज के समान उपाश्रय को धारण करता हैं / / 16 // संरक्ष्यन्ते स्वरेणैव यत्र लोकाः कलिप्रियाः। ऋषिस्थानमिदं मुख्यमित्येवाहुविशारदाः / / 17 / / जहाँ अधिक घनी बस्ती होने के कारण जो स्वर-शब्द होता रहता

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