Book Title: Stotravali
Author(s): Yashovijay
Publisher: Yashobharati Jain Prakashan Samiti

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Page 349
________________ 256 ] . यही कारण है कि यह दीवबन्दर अपने अनेक गुणों के कारण मुझसे भी महान् है अतः इस महान् के साथ स्पर्धा करना उचित नहीं है / यह सोचकर ही समुद्र ने इस दीवबन्दर को अपनी कन्या (लक्ष्मीधन-दौलत) दे डाली है क्या ? // 7 // यत्र भान्ति गरीयांसः प्रासादाः पर्वता इव / शृङ्गाग्रसञ्चरन्मेधघटाघटिनविस्मयाः॥८॥ जिस दीवबन्दर में शिखरों के ऊपर चलते हुए मेघों की घटाओं से विस्मय उत्पन्न करनेवाले पर्वतों के समान बड़े-बड़े महल शोभित हो रहे हैं // 8 // चैत्यस्फटिकभित्तीनां शुभ्रः प्रसृमरैः करैः / वर्द्धमानेक्ष्यते यत्र तिथिष्वेकैव पूरिणमा // 6 // जिस दीवबन्दर में जिनचैत्यों की स्फटिक-भित्तियों पर उज्ज्वल और चिकनी निर्मल किरणों के पड़ने से पूर्णिमा तिथि के बिना ही प्रतिदिन एक पूर्णिमा तिथि ही बढ़ती हुई दिखाई देती है // 6 // दृष्ट्वा स्वर्णघटान् यत्र चैत्यचूलावलम्बिनः / मन्यन्ते स्वःस्त्रियो मुग्धाः 'शतसूर्य नभस्तलम् // 10 // जिस दीवबन्दर में चैत्यों के ऊपर रखे हुए स्वर्णकलशों को देख कर भोली स्वर्गवासिनी सुन्दरियाँ आकाश को सैंकड़ों सूर्यवाला मानती हैं। __(इस पद्य में 'शतसूर्य नभस्तलम्' इस प्रसिद्ध समस्या की पूर्ति की गई है।) // 10 //

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