Book Title: Stotravali
Author(s): Yashovijay
Publisher: Yashobharati Jain Prakashan Samiti

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Page 342
________________ [ 246 . भाववाले तथा व्रती-मुनिजनों के स्वामी श्रीपार्व-जिनेश्वर की मैं शरण स्वीकार करता हूँ // 4 // स्वस्ति श्रिये स प्रभुपार्श्वनाथः, कृतप्रसर्पदुरितप्रमाथः / यन्नाममन्त्रस्मरणप्रभावात्, प्रयान्ति सद्यो विलयं भयानि // 5 // अपने उत्तम कर्मों के बल से फैलते हुए पापकर्मों का विनाश कर दिया है जिसने तथा जिनके नाम-मन्त्र-स्मरण के प्रभाव से शीघ्र ही समस्त भय नष्ट हो जाते हैं, ऐसे वे श्रीपार्श्वनाथ प्रभु आपके मङ्गल एवं कल्याण के लिये हों / / 5 / / प्रसीदतु प्रत्नसमीहितार्थः, पार्श्वः सतां ध्वस्तसमस्तपापः / नोरन्ध्रधाराधरनीरधाराविधौतविन्ध्याचलचारुकान्तिः // 6 // घने बादलों की जलवृष्टि से धुले हुए विन्ध्यपर्वत के समान मञ्जुल कान्तिवाले, सज्जनों के समस्त पाप को नष्ट करनेवाले तथा इच्छित कामनाओं को पूर्ण करनेवाले श्रीपार्श्वनाथ जिनेश्वर प्रसन्न हों॥६॥ गभस्तिवद् ध्वस्ततमःप्रतानः, कल्पद्रुवत् कामितदानदक्षः। प्रमुद्रगाम्भीर्यनिधानमुद्रः, समुद्रवत्पार्वजिनोऽवताद् वः // 7 // सूर्य के समान अन्धकार के समूह को ध्वस्त करनेवाले, कल्पवृक्ष के समान इच्छित वस्तु को देने में निपुण तथा समुद्र के समान अपार गम्भीरता से परिपूर्ण मुद्रावाले ऐसे श्रीपार्श्वनाथ जिनेश्वर आपकी रक्षा करें॥७॥ विधेव मुद्राऽजनि यस्य चित्रा, मुद्रेव कान्तिः परमा पवित्रा। दिग्व्यापिनी कान्तिरिवोरुकोतिः, पावो जगत् सोऽवतु पुण्यमूतिः // 8 //

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