Book Title: Stotravali
Author(s): Yashovijay
Publisher: Yashobharati Jain Prakashan Samiti

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Page 334
________________ [ 241 सदा विहङ्गा इव विप्रमुक्ता, भारण्डपक्षीन्द्रवदप्रमत्ताः / शौण्डीर्यभाजो गजवच्च जातस्थामप्रकर्षा वृषभा इवोच्चैः॥ 27 // वे मुनिराज पक्षियों के समान सदा स्वच्छन्द विहारी, भारण्ड पक्षी के समान अप्रमत्त, हाथी के समान शौण्डीर्य-स्वाभिमान से युक्त तथा वृषभ के समान उच्च-उन्नत प्रकर्ष को प्राप्त होकर शोभित होते रहते हैं // 27 // दुर्द्धर्षतां सिंहवदब्धिवच्च, गम्भीरतां मन्दरवत् स्थिरत्वम् / प्राप्ताः सितांशूज्ज्वलसौम्यलेश्याः, सूर्या इवात्यद्भुतदीप्तिमन्तः // 28 // वे मुनिराज सिंह के समान निर्भीक होकर, समुद्र के समान गम्भीर, मन्दराचल के समान स्थिर, श्वेत-किरण चन्द्रमा के समान शुद्ध सौम्य-लेश्या को प्राप्त तथा सूर्य के समान अद्भुत तेजस्वी होकर शोभित होते हैं // 28 // सुजातरूपास्तपनीयवच्च, भारक्षमा एव वसुन्धरावत् / ज्वलत्त्विषो वह्निवदुल्लसन्ति, समाधिसाम्योपगता मुनीन्द्राः // 26 // वे मुनिराज सुवर्ण के समान उत्तम स्वरूपवाले, पृथ्वी के समान भार वहन करने में समर्थ तथा अग्नि के समान देदीप्यमान कान्ति से युक्त होकर शोभित होते हैं // 26 // गजाश्च-सिंहा गरुडाश्च नागा, व्याघ्राश्च गावश्च सुरासुराश्च / तिष्ठन्ति पार्वे मिलिताः समाधिसाम्यस्पृशामुज्झितनित्यवराः // 30 // समाधि-साम्य को प्राप्त मुनिराजों के पास हाथी और सिंह, गरुड़

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