________________ साथ ही एकत्व अर्थात् अभेद भी किसी न किसी प्रकार बना रहत है // 52 // देशेन दृष्ट इह यः स मया न दृष्टो, देशेन चेति विशदव्यवहार एषः। संयोगतद्विरहवन्ननु देशभेदा देकत्र देशिनि विरुद्ध निवेशमाह // 53 // 'जिस वस्तु को एक भाग में देखा उसी वस्तु को अन्य भाग में नहीं देखा, ऐसा व्यवहार स्पष्ट रूप से लोक में देखा जाता है और इस व्यव. हार के कारण ही भागभेद से एक ही वस्तु में दर्शन और प्रदर्शन इन दो विरुद्ध धर्मों का समावेश स्वीकार किया जाता है तथा इस प्रकार एक वस्तु में विरुद्ध एवं विभिन्नरूपता की सिद्धि होती है। यदि यह कहा जाए कि एक वस्तु का दर्शन और प्रदर्शन उक्त व्यवहार का विषय नहीं है अपितू वस्तू के एक भाग का दर्शन और अन्यभाग का प्रदर्शन उक्त व्यवहार का विषय है, अतः उसके आधार पर एक वस्तु में दर्शन और अदर्शनरूप विरुद्ध धर्मों का समावेश सिद्ध नहीं हो सकता, तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि ऐसा मानने पर एक वृक्ष में कपिसंयोग और कपिसंयोगाभाव की भी सिद्धि नहीं होगी। कहने का तात्पर्य यह है कि-'शाखा में वृक्ष कपिसंयुक्त है और मूल में कपि से असंपुक्त है' इस व्यवहार के विषय में भी यह कहा जा सकेगा कि यह व्यवहार शाखा में कपिसंयोग और मूल में कपिसंयोगाभाव का प्रतिपादन करता है न कि शाखा और मूल की अपेक्षा वृक्ष में उन दोनों के अस्तित्व का / फलतः इस व्यवहार के आधार पर वृक्ष में कपिसंयोग और कपिसंयोगाभाव की सिद्धि न हो सकने के कारण कपिसंयोग की अव्याप्यवृत्तिता अर्थात् कपिसंयोगाभाव के साथ एक आश्रय में रहना सिद्ध न हो सकेगा। अतः यह निर्विवादरूप से मानना पड़ेगा कि जैसे