________________ [ 167 समुदायात्मक वस्तु है। उसमें-'१. उत्पन्न होने वाला 2. नष्ट होने वाला तथा 3. स्थिर रहने वाला' ऐसे तीन अंश होते हैं / फलतः समुदाय में द्रव्यत्व और उत्पन्न तथा नष्ट होनेवाले भाग में उसके अभाव के रहने में कोई बाधा नहीं हो सकती। - उक्त रीति से घट, पट आदि पदार्थों में द्रव्यत्व और द्रव्यत्वाभाव के आधार पर सप्तविधत्व सिद्ध हो जाने पर उसी दृष्टान्त से आत्मा में भी सप्तविधत्व का अनुमान कर लिया जा सकता है क्योंकि उसके बिना अन्य पदार्थों की भाँति आत्मा का भी सप्तभंगी न्यायमूलक सुस्पष्ट व्यवहार नहीं हो सकता // 67 // शक्त्या विभुः स इहलोकमितप्रदेशो, व्यक्त्या तु कर्मकृतसौवशरीरमानः / यत्रब यो भवति दृष्टगुणः स तत्र, कुम्भादिवद् विशदमित्यनुमानमत्र // 70 // - जैनदर्शन में प्रात्मा न्यायदर्शन के अनुसार एकान्ततः विभु अथवा बौद्ध दर्शन के अनुसार एकान्ततः अविभु नहीं है अपितु कथञ्चिद् विभु भी है और कथञ्चिद् अविभु भी है। इस संसार में प्रात्मा लोकमित प्रदेश है अर्थात् लोकाकाश के जितने प्रदेश हैं उतने ही प्रदेश प्रात्मा के भी हैं, अतः लोक के समस्त प्रदेशों के साथ प्रात्मप्रदेशों के सम्बन्ध के शक्य होने के कारण आत्मा शक्ति-सामर्थ्य की दृष्टि से विभु व्यापक है, किन्तु व्यक्तिगत स्वरूप की दृष्टि से अथवा अपनी अभिव्यक्ति की दृष्टि से वह अपने पूर्वाजित कर्म द्वारा प्राप्त अपने शरीरमात्र में ही सीमित होने से अविभु-अव्यापक है। - व्यक्तिरूप में आत्मा अपने शरीरमात्र में ही सीमित रहता है यह बात एक निर्दोष अनुमान द्वारा प्रमाणित होती है, वह अनुमान इस प्रकार है-प्रत्येक आत्मा अपने शरीर में ही सीमित होता है क्योंकि