________________ 202 ] 'आत्मा यदि अविभु होगा तो मूर्त होगा। और मूर्त होने पर दो मूर्त द्रव्यों का एक स्थान में समावेश शक्य न होने के कारण शरीर में उसका अनुप्रवेश न हो सकेगा। और यदि मूर्त शरीर में मूर्त मन और बालुकापुंज में मूर्त जलकणों के समान मूर्त शरीर में मूर्त आत्मा के समावेश की उपपत्ति की जाएगी तो शरीर के समस्त भाग में शैत्य, उष्णता आदि की सह अनुभूति की उपपत्ति के लिए शरीर के समस्त अवयवों में आत्मा का सह अनुप्रवेश मानना होगा, और उसके साम जस्य के लिए उसको शरीरसमप्रमाण मानना होगा और शरीरसम होने पर शरीर के समान उसे जन्य तथा शरीर का खण्ड एवं प्ररोह होने पर उसका भी खण्ड और प्ररोह मानना होगा?' इन आपत्तियों के अतिरिक्त दूसरी आपत्ति यह होगी कि 'जब कभी कोई एक शरीर कट कर अनेक खण्डों में विभक्त होगा तो उन जीवित खण्डों में उस शरीर के आत्मा का अनुप्रवेश होने पर एक,ही आत्मा के अनेक भेद हो जाएंगे।' इस सन्दर्भ में स्तोत्रकार का कथन है कि 'ऊपर बताये गये समस्त दोष देखने में यद्यपि सर्प के समान बड़े भयानक लगते हैं तथापि भगवान् महावीर के शासन में रहनेवाले लोगों को उन दोषरूपी सों से कोई भय नहीं है क्योंकि वे स्याद्वाद के गारुडीय मन्त्र से सुरक्षित हैं। जैसे गारुडमन्त्र को जाननेवाले मनुष्यों को बड़े-बड़े विषैले सर्प कोई हानि नहीं पहुँचा पाते उसी प्रकार स्याद्वाद की रीति से समस्त विरोधों का समन्वय करने में कुशल जैन मनीषियों को उक्त आपत्तियाँ कोई हानि नहीं पहुँचा सकतीं, क्योंकि जैनमत में आत्मा में मूर्तत्व, सावयवत्व कार्यत्व, खण्ड, प्ररोह और भिन्नात्मता अपेक्षाभेद से कथञ्चित् स्वीकार्य है' // 72 // स्युर्वैभवे जनननमृत्युशतानि जन्मन्येकत्र पाटितशतावयवप्रसङ्गात् /