________________ 212 ] भोग: प्रदेशविषयो नियतो विपाके, भाज्यत्वमित्यनघ! ते वचनं प्रमाणम् // 20 // क्रिया सच्चरित्र में विरति और संवर का तथा ज्ञान में सम्यक्त्त्व और संवर का समावेश होता है। अतः क्रिया और ज्ञान दोनों क्रम से अपने अंश विरति और सम्यक्त्व के प्रभाव से नूतन कर्मों की उत्पत्ति का प्रतिबन्ध करते हैं और अपने संवर-तपोरूप अंश के प्रभाव से सञ्चित कर्म का नाश करते हैं। इस प्रकार क्रिया और ज्ञान से अनागत कर्मों का निरोध और सञ्चित कर्मों का नाश हो जाने से मोक्ष की प्राप्ति सुकर हो जाती है। ___ यदि यह शङ्का उठाई जाय कि 'कर्मनाश के प्रति भोग एक अनुपेक्षणीय कारण है अतः उसके बिना सञ्चित कर्मों का नाश नहीं हो सकता' तो यह ठीक नहीं है क्योंकि कर्मनाश में प्रदेशानुभवस्वरूप भोग के आनन्तयं का ही नियम है, विपाकानुभवस्वरूप भोग के आनन्तर्य का नहीं। उसका तो कर्मनाश के प्रति भाज्यत्वविकल्प ही अभिमत है। कहने का अभिप्राय यह है कि भोग के दो भेद होते हैं प्रदेशानुभव और विपाकानुभव / इनमें पहले का अर्थ है सञ्चित कर्मराशि के एक भाग प्रारब्ध कर्मसमूह का फलभोग जो वर्तमान जन्म में ही सम्पन्न हो जाता है, दूसरे का अर्थ है प्रारब्धभिन्न सञ्चित कर्मों का फल भोग, जिसके लिये जन्मान्तर-ग्रहण की आवश्यकता होती है। इन दोनों में पहला भोग तो कर्मकोश के अविकल नाश का नियतपूर्ववर्ती होता है पर दूसरा भोग उसका वैकल्पिक पूर्ववर्ती होता है / जैसे मोक्षार्थी जब सम्यग्ज्ञान के अतिशय से समृद्ध न होकर केवल सम्यक्चारित्र्य के ही अतिशय से समृद्ध होता है तब उसे प्रारब्ध से भिन्न सञ्चित कर्मों के लिये जन्मान्तर ग्रहण कर उन कर्मों का भोग करना पड़ता है किन्तु जब वह सम्यग्ज्ञान के अतिशय से भी समृद्ध हो जाता है तब उसी से शेष सञ्चित कर्मों का नाश हो जाने के कारण जन्मा