________________ 220 ] बयासीवें श्लोक में प्रसन्नचन्द्र नामक पुरुष में 'क्रिया में मोक्षप्राप्ति का अन्वय-व्यभिचार' और भरत नामक पुरुष में 'क्रिया में मोक्षप्राप्ति का व्यतिरेक-व्यभिचार' बताकर जो क्रिया में मोक्ष-कारणता का निषेध किया गया है, वह भी ठीक नहीं है, क्योंकि उक्त व्यभिचार से क्रिया में मोक्ष की नियत-कारणता का ही प्रतिषेध हो सकता है न कि वैकल्पिक कारणता का भी प्रतिषेध हो सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि क्रिया को मोक्ष का सार्वत्रिक कारण माना जाए तो उसमें उक्त व्यभिचार बाधक हो सकता है पर यदि क्रियाविशेष को पुरुषविशेष के मोक्ष का कारण माना जाय तो उसमें उक्त व्यभिचार बाधक नहीं हो सकता। अतः जैनदर्शन की इस मान्यता में कोई दोष नहीं हो सकता कि 'जिस पुरुष को ज्ञानप्राप्ति के अनन्तर मोक्ष लाभ होता है उस पुरुष के मोक्ष के प्रति ज्ञान कारण होता है और जिस पुरुष को चारित्रसम्पत्ति के समनन्तर मोक्षलाभ होता है उस पुरुष के मोक्ष के प्रति क्रिया-चारित्र कारण होता है। यदि यह कहा जाए कि ज्ञान ही मोक्ष का प्रधान कारण है और क्रिया उसका द्वार है और द्वार की अपेक्षा द्वारी की प्रधानता होती है अतः क्रिया की अपेक्षा ज्ञान की प्रधानता अनिवार्य है, तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि द्वार-द्वारिभाव ज्ञान और क्रिया दोनों में समान है, अर्थात् जैसे कहीं ज्ञान प्रधान और क्रिया उसका द्वार होती है उसी प्रकार कहीं क्रिया प्रधान और ज्ञान उसका द्वार होता है, इसलिये कहीं क्रिया द्वारा ज्ञान और कहीं ज्ञान द्वारा क्रिया से मोक्ष की सिद्धि होने के कारण एकान्तरूप से यह कथन उचित नहीं हो सकता कि ज्ञान मोक्ष का प्रधान साधन है और क्रिया अप्रधान साधन // 86 / / सम्यक्त्वशोधकतयाधिकतामुपैतु, ज्ञानं ततो न चरणं तु विना फलाय /