Book Title: Stotravali
Author(s): Yashovijay
Publisher: Yashobharati Jain Prakashan Samiti

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Page 315
________________ 222 ] ज्ञातासि चात्र तरणोत्कनटीपथज्ञाश्चेष्टान्वितास्तदितरे च निदर्शितानि // 2 // केवल ज्ञान को नहीं अपितु कर्मयुक्त ज्ञान को फलसिद्धि का कारण बताते हुए स्तोत्रकार कहते हैं कि-"ज्ञान अपने विषय में बँधा होता है, वह अपने विषय का प्रकाशन मात्र कर सकता है, उसकी प्राप्ति कराने में वह अकेला असमर्थ है, अतः यह निर्विवाद है कि कोरे ज्ञान से फल की सिद्धि नियत नहीं है, नियत फलसिद्धि तो चरण-कर्म से युक्त ज्ञान के द्वारा ही सम्भव है। इस विषय में कई दृष्टान्त भी प्रसिद्ध हैं, जैसे तैरने की कला में निपुणता और तैरने की इच्छा होते हुए भी मनुष्य किसी नदी को तब तक नहीं तर पाता जब तक वह तैरने के लिये हाथ पैर चलाने की शारीरिक क्रिया नहीं करता, एवं नाचने की कला में निपुण और नृत्य की इच्छा रखने पर भी नर्तकी तब तक नृत्य नहीं कर पाती जब तक वह अंगों के प्रावश्यक अभिनय में सक्रिय नहीं होती, मार्ग जाननेवाला और उस मार्ग पर यात्रा की इच्छा रखनेवाला भी मनुष्य उस मार्ग पर तब तक. नहीं चल पाता जब तक वह उस मार्ग पर पैर बढ़ाने की क्रिया नहीं करता। इन दृष्टान्तों से स्पष्ट है कि अकेले ज्ञान से कोई कार्य नहीं होता किन्तु उसके लिये उसे कर्म के सहयोग की अपेक्षा होती है, अतः जैनशासन का सिद्धान्त सबल प्रमाणों और युक्तियों पर आधारित है कि 'सम्यक चारित्र युक्त सम्यग् ज्ञान से ही मोक्ष का लाभ होता है / इसलिये प्रत्येक मुमुक्षुजन को ज्ञान और चारित्र दोनों के अर्जन के लिये प्रयत्नशील होना चाहिये / / 62 // मुक्त्वा नृपो रजतकाञ्चनरत्नखानीलॊहाकरं प्रियसुताय यथा ददाति /

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