________________ 168] नहीं होती ? इसका उत्तर यह है कि जब किसी भी मनुष्य को वस्तु की प्रतीति होती है तब उसे उस वस्तु के समस्त रूप की अविविक्त प्रतीति होती है, क्योंकि जब वस्तु विरुद्ध, अविरुद्ध, स्वाश्रित, पराश्रित तथा अनाश्रितरूप अनन्त धर्म-पर्यायों की अभिन्न समष्टिरूप है तब यह कैसे कहा जा सकता है कि वस्तु की प्रांशिक ही प्रतीति होती है और पूर्ण प्रतीति नहीं होती, हां यह अवश्य है कि सर्व-साधारण को वस्तु के समस्त रूपों की विविक्त एवं विस्पष्ट प्रतीति नहीं होती क्यों कि इस प्रकार की प्रतीति के लिये स्याद्वादी दृष्टि होना आवश्यक होता है और जिसे यह दृष्टि प्राप्त है, जिसने वस्तु की उत्पत्ति, विकास और स्थैर्यरूप लक्षणों के भङ्गजाल का अध्ययन किया है उसे वस्तु की अनन्तरूपता की स्पष्ट प्रतीति होती ही है। अतः युक्ति और प्रमाण से जब वस्तु का यह अनन्त विशाल स्वरूप सिद्ध होता है तब सामान्य मानव को उसकी स्पष्ट प्रतीति न होने के कारण उसे अस्वीकार कर देना उचित नहीं है अपितु उसकी स्पष्ट-प्रतीति प्राप्त करने के लिये दृष्टि को स्याद्वाद के अञ्जन से विमल और ग्रहणपटु बनाने के निमित्त अनेकान्तदर्शी प्राचार्यों का सत्संग करना अपेक्षित है // 54 / / तत्त्वं ह्यबुद्धयत शिशुर्भवतः किलेदं, षड्वार्षिकोऽपि भगवन्नतिमुक्तकर्षिः / जानन्ति ये न गतवर्षशतायुषोऽपि .... धिक् तेषु मोहनृपतेः परतन्त्रभावम् / / 55 / / हे भगवन् ! छः वर्ष की आयूवाला आपका कृपापात्र बालक.जिसे अतिमुक्तक ऋषि की अवस्था प्राप्त है. जिसे उस छोटी आयु में ही अनेकान्तता का दर्शन होने लगा है और जिसने उसी आयु में माता की आज्ञा प्राप्त करके जैनशास्त्रोक्त दीक्षा ग्रहण की है, जिस वस्तु को वह अवगत कर लेता है उसे अन्य शास्त्रों के सुविख्यात अतिवृद्ध