________________ 162 ] होकर समस्त रूप से रहना, चित्रेतर-चित्ररूप तथा चित्रेतर रूप इन विरुद्धधर्मों के समावेश से अवयवी की जो अनेकात्मकता प्रतीत होती है वह तात्त्विक नहीं अपितु अतात्विक है। क्योंकि उक्त विरुद्ध धर्मों का सम्बन्ध विभिन्न अवयवों में होता है न कि अवयवी में / अवयवी में तो उनका आरोपमात्र होता है। फलतः अवयवों से भिन्न एक अवयवी की सिद्धि में कोई बाधा नहीं है, क्योंकि- अतात्त्विक अनेकता तात्त्विक एकता का विरोध नहीं कर सकती // 48 // . दृष्टो ह्यदृष्ट इति को निरपेक्षमाह, .. देशावृतौ स्फुटमनावृत एव देशी। देशे चलत्यपि चलत्वमसौ न धत्ते, देश भ्रमादवयवी भ्रमभाजनं नो // 46 // _____ जो वस्तु दर्शन का विषय है वह निरपेक्षरूप से दर्शन का अविषय है, यह बात कौन कहता है ? अर्थात् यह किसी का भी मत नहीं हो सकता कि एक वस्तु एक ही अपेक्षा से अर्थात् एक ही दृष्टि से दर्शन का विषय भी हो सकती है और दर्शन का अविषय भी हो सकती है। तात्पर्य यह है कि परस्पर विरुद्ध प्रतीत होनेवाले भावाभावात्मक धर्मों का एक वस्तु में समावेश किसी एक दृष्टि से नहीं हो सकता है किन्तु दृष्टिभेद से ही हो सकता है / देश-अंश का आवरण होने पर देशी-अंशी स्पष्टरूपेण अनावृत ही रहता है, अर्थात् जिस समय किसी अंशी का कोई एक अंश प्रावृत होता है उस समय वह अंशी स्वयम् अनावृत ही रहता है, फलतः आवरण और अनावरण का किसी एक वस्तु में युगपत् समावेश नहीं होता। इसी प्रकार देश-अंश के गतिमान् होने पर भी देशी-अंशी गतिमान् नहीं होता और देश-अंश में भ्रमण उत्पन्न होने पर भी देशी-अंशी भ्रमरणहीन रहता है, अर्थात् जिस समय किसी अंशी का कोई एक अंश गतिशील हो उठता है अथवा