________________ [ 125 स्तुत्या गुरणाः शुभवतो भवतो न के वादेवाधिदेव ! विविधातिशद्धिरूपाः / तर्कावतार-सुभगैस्तु वचोभिरेभि स्त्वद्वाग्गुणस्तुतिरनुत्तरभाग्यलभ्या // 2 // हे देवाधिदेव ! विविध प्रकार के अतिशयों की ऋद्धिवाले समस्त सुन्दर वस्तुओं के आश्रय ऐसे आपके कौन-से गुण हैं जो प्रशंसा के योग्य नहीं हैं ? अर्थात् सभी प्रशंसनीय हैं / तथापि इन तर्क के सम्बन्ध से सुन्दर वचनों द्वारा आपकी वाणी के गुणों की मैं स्तुति करता हूँ, क्योंकि यही सर्वोत्तम भाग्य से प्राप्तव्य है // 2 // नैरात्म्यदृष्टिमिह साधनमाहुरेके, सिद्धेः परे पुनरनाविलमात्मबोधम् / तैस्तैर्नयैरुभयपक्ष-समापि ते वा गाद्यं निहन्ति विशदव्यवहारदृष्टया // 2 // हे देव ! बौद्धों ने 'नैरात्म्यदृष्टि'-अर्थात् 'ज्ञान से भिन्न गुणों का आधार द्रव्यरूप आत्मा नहीं है" इस निश्चय को सिद्धि-मोक्ष का उपाय बताया है। इसी प्रकार अन्य न्याय, वैशेषिक शास्त्रानुयायियों ने 'निर्मल प्रात्म-ज्ञान'-अर्थात् आत्मा शरीर, मन, इन्द्रिय आदि से अनेक स्थलों पर किया है। जैसे-ऐ कारेण-वाग्बीजाक्षरेण विस्फारम्-अत्युदारं यत् सारस्वतध्यानं-सारस्वतमन्त्रप्रणिधानं तेन दृष्टा-भावनाविशेषेण साक्षात्कृता।" अर्थात् ऐंकार वाग्बीजाक्षर के पर्याप्त प्रणिधान से सरस्वती का साक्षात्कार किया है जिसने / (ऐन्द्रस्तुति-महावीर-जिनस्तुति, श्लोक 2 की टीका स्वोपज्ञ) इसी बात का स्मरण करते हुए तथा कृतज्ञता प्रकट करते हुए यहाँ 'ऐकार जापवर' की बात कही गई है। -सम्पादक