________________ 156 ] - यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है कि 'जैनशास्त्र के आदेशानुसार वस्तु के किसी एक ही रूप का अवधारण करनेवाली भाषा का प्रयोग नहीं करना चाहिये', तब स्याद्वादी के लिये नैयायिक के नय का प्रयोग कैसे उचित हो सकता है ? इसका उत्तर यह है कि-'स्याद्वादी बौद्धसम्मत वस्तु धर्म का सर्वथा निराकरण करने के लिये न्यायनय का प्रयोग नहीं करता अपितु यह सिद्ध करने के लिये करता है कि 'वस्तु बौद्धमतानुसार केवल क्षणिकत्वदि धर्मों की ही आश्रय नहीं है अपितु न्यायमतानुसार स्थिरत्व और ज्ञानभिन्नत्वादि धर्मों की भी आश्रय है।' अतः बौद्धनयसापेक्ष ही न्यायनय की स्वीकृति के कारण अवधारण फलक भाषा के प्रयोग का दोष स्याद्वादी को नहीं हो सकता। जैनदर्शनानुसार स्याद्वाद के अंक में समस्तवस्तुओं के स्थित होने से कोई भी नय एकान्ततः स्याद्वाद से अत्यन्त भिन्न नहीं है, अतः स्याद्वादी किसी भी नय के प्रयोग का अधिकारी है। यदि ऐसे नय का प्रयोग वर्ण्य माना जाए तो सप्तभंगी नय का प्रयोग भी वर्ण्य हो जाएगा। इसी प्रकार स्याद्वाद के प्रामाण्य में स्याद्वाद का प्रवेश होने से उसकी प्रमाणरूपता के व्याघात की शंका भी नहीं करनी चाहिये, क्योंकि स्वयं स्याद्वाद के भी उसके प्रभाव में पड़ने से ही उसके महत्त्व की रक्षा और उस लक्ष्य की पूर्ति हो सकती है // 42 // नोच्चबिभेति यदि नाम कृतान्तकोपादुष्प्रेक्ष्य कल्पयति भिन्नपदार्थ-जालम् / . चित्रस्थले स्पृशति नैव तवोपपत्ति, तत्कि शिरोमणिरसौ वहतेऽभिमानम् // 43 //