________________ [ 155 पाडित्य और प्रतिष्ठा का ह्रास ही नहीं होता प्रत्युत वह स्वयं हास्यास्पद भी बन जाता है, क्योंकि उसका यह कार्य उस मनुष्य के समान है जो स्वयं नग्न होते हुए भी दूसरे नग्न मनुष्य के हाथ से धूल लेकर उसे किसी अन्य नग्न मनुष्य के सिर पर डालने का लज्जाकारक कार्य करता है / / 41 // देशेन देशदलनं भजनापथे तु, स्वच्छासने निजकरेण मलापनोदः / व्याघातकृन्न भजनाभजना जनानामित्थं स्थिती शबलवस्तुविवेकसिद्धः // 42 // स्याद्वादी न्यायनय के द्वारा बौद्धमत का खण्डन कर सकता है, क्योंकि स्याद्वाददर्शन में इस प्रकार का खण्डन अपने हाथों से अपने अंग का मैल धोने के समान है। अर्थात् स्याद्वाद में सभी नयों का समावेश होने से वे सभी नय उसके अंग के समान हैं और एक दूसरे को दोषपूर्ण ठहराने का आग्रह ही उनका मल है, अतः अपने अंगभूत एक नय के द्वारा अंगान्तर रूप अन्य नय के मल का अपनयन करना स्याद्वादरूपी अङ्गी का परम कर्तव्य है। यहाँ 'यदि न्यायनय एकान्तवादी होने के कारण मिथ्या है तो सत्यान्वेषी स्याद्वादी को माध्यमिक मत के खण्डनार्थ उसका अवलम्बन लेना उचित नहीं है,' ऐसी शङ्का करना ठीक नहीं है, क्योंकि सभ्यसमाज की दृष्टि में सत्य-प्राप्ति के लिये असत्य को भी उपादेय माना जाता है। स्याद्वाद का ध्येय है 'सभी वस्तुओं को अपने अंक में बिठाना।' अतः स्याद्वाद स्वयं भी अपनी कोड में स्थित है अर्थात् वह स्वयं भी एकान्ततः न तो प्रमाण ही है और न नय ही, किन्तु अपेक्षा भेद से प्रमाण भी है और नय भी।