________________ 130 ] सङ्ग्राहकेतरविकल्पहतिश्च तत्र, व्यक्तौ विरोधगमने व्यवहारबाघः। व्यावृत्तयोऽप्यनुहरन्ति निजं स्वभाव माकस्मिकव्यसनिता द्विषतां तवाहो ! // 11 // अंकुर की उत्पादकता का नियामक जो कुर्वद्रूपत्व है वह यवत्व का संग्राहक है अर्थात् सभी यवबीजों में कुर्वद्रूपत्व रहता है, अथवा उसका संग्राहकेतर अकुर्वद्रूपत्व विरोधी है अर्थात् किसी यवबीज में नहीं रहता / इस प्रकार के संग्राहक और प्रतिक्षेपक सम्बन्धी विकल्पों से कुर्वद्रूपत्व नामक काल्पनिक जाति का बाध होमा; क्योंकि प्रथम विकल्प में अंकुर पैदा न करनेवाले यवबीजों में भी उसकी प्रसक्ति और द्वितीय विकल्प में अंकुर पैदा करनेवाले यवबीजों से भी उसकी निवृत्ति हो जाएगी। यदि सभी यवबीजों में कुर्वद्रूपत्व की व्यापकता न मानकर अंकुरोत्पादक यवबीजों में ही उसकी व्यापकता स्वीकार करके संग्राहकता माने और सभी यव बीजों में उसका विरोध न मानकर अंकुरानुत्पादक यवबीजों में ही कुर्वपत्व-विरोधिता मान ली जाएगी तो परस्पर व्यभिचारी जातियों में भी इस न्याय का संचार हो सकने के कारण किसी अदृष्ट व्यक्ति में गोत्व और अश्वत्व के भी सहभाव की सम्भावना से उनके सर्वजनप्रसिद्ध, सर्वाश्रयव्यापी विरोध व्यवहार का लोप होगा, क्योंकि उक्त प्रकार से दो जातियों में परस्पर की संग्राहकता और प्रतिक्षेपकता स्वीकार कर लेने पर 'परस्पर व्यभि चारी जातियों का सहभाव नहीं होता' इस नियम का परित्यांग होता है। परस्पर व्यभिचार होने पर एक आश्रय में न रहना यह स्वभाव जातियों का ही न होकर जाति के प्रतिनिधिरूप में बौद्धकल्पित अतद्