________________ [ 145 नहीं मानते, अपितु सामान्य-विशेषरूप मानते हैं, क्योंकि गोत्व आदि जातियाँ यदि केवल सामान्यरूप होंगी तो गो आदि के अनुगत-ज्ञान और अनुगत-व्यवहार का साधन तो उनसे होगा किन्तु गो आदि में गो आदि से विजातीय पदार्थों के भेद का साधन न हो सकेगा, क्योंकि 'भेद का साधन सामान्य का कार्य न होकर विशेष का ही कार्य होता है।' इसी प्रकार गोत्व आदि को केवल विशेष-रूप भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि केवल विशेषरूप मानने पर सामान्य के कार्य गो आदि के अनगत-ज्ञान और व्यवहार का साधन उनके द्वारा न हो सकेगा। इसलिए गोत्वादि को सामान्य और विशेष उभयरूप ही मानना पड़ता है। गोत्वादि धर्म जिस समय विशेषत्व रूप से गृहीत होते हैं उस समय वे अपने आश्रय में अनुगत-व्यवहार का साधन नहीं करते किन्तु अन्यपदार्थों के भेदज्ञान का ही साधन करते हैं / इसलिए उस दशा में उन से अनुगत-व्यवहार की आपत्ति का परिहार करने के लिए यह कल्पना करनी होगी कि जिस समय गोत्व आदि विशेषत्व रूप से गृहीत नहीं होते उसी समय उनको अनुगतव्यवहार की कारणता होती है।' अर्थात् विशेषत्वरूप से अगृह्यमाण गोत्वादि को गो आदि के अनुगत-व्यवहार की कारणता होती है, परन्तु इस कल्पना में गौरव है / अतः इस की अपेक्षा यह कल्पना करने में लाघव है कि 'सामान्यत्वरूप से गृह्यमाण गोत्वादि में ही उक्त व्यवहार की कारणता है।' अब यहाँ यह विचार स्वभावतः अवतीर्ण हो जाता है कि जब गोत्व आदि अतिरिक्त वस्तु की कल्पना करने पर भी उनमें सामान्यत्व की कल्पना के द्वारा ही उनसे गो आदि के अनुगत व्यवहार का समर्थन करना पड़ता है, तब उससे तो यही कल्पना उत्तम है कि गोत्वादि कोई भिन्न सामान्य नहीं है अपितु गो आदि व्यक्ति ही सामान्यरूप हैं। अतः वे स्वयं सामान्यत्वरूप से गो आदि के अनुगत