________________ [ 113 विदीर्णदन्तिव्रजकुम्भपीठव्यक्तक्षरदरक्तरसप्रसक्तम् / गिरिप्रतिध्वानकरः प्रणाविध्वंसयन्तं करिणां विनोदम् // 66 // अतुच्छपुच्छस्वनवारबिभ्यद्-वराहमातङ्गचमूरुयूथम् / मृगारिमुवीक्ष्य न शकते ते, नाम स्मरन् नाथ ! नरो नितान्तम् // 6 // हे जिनेश्वर ! हाथियों के चीरे हुए गण्डस्थलों से प्रत्यक्ष बहते हुए रक्त से युक्त, पर्वतों के प्रतिशब्दों के नाद से हाथियों के हर्ष को नष्ट करनेवाले, विशाल पूँछ के शब्द-समूह से शूकर, हाथी और हरिणों को भयभीत करनेवाले सिंह को देखकर आपके नाम का स्मरण करता हुआ मनुष्य निःशङ्क बन जाता है, उसे किसी का भय नहीं रहता है / / 66-67 // तमालहिन्तालरसालताल-विशालसालव्रजदाहधूमैः / दिशः समस्ता मलिना वितन्वन्, दहन्निवानं प्रसृतः स्फुलिङ्गः // 8 // मिथो मिलज्ज्वालजटालमूतिर्दवानलो वायुजवात् करालः / त्वदीयनामस्मररणकमन्त्राद्, जलायते विश्वजनाभिवन्द्य ! // 66 // हे विश्वजन-प्रणम्य जिनेश्वर देव ! तमाल, हिन्ताल, आम्र, ताल और साल इन विशाल वृक्षों के दाह से उत्पन्न धूम से समस्त दिशात्रों को मलिन करनेवाले, सर्वत्र व्याप्त अग्नि-स्फुलिंगों से आकाश को जलाते हुए की तरह परस्पर मिलती हुई ज्वालाओं से भीषण तथा वायु के वेग से विकराल रूप दावानल आपके नाम स्मरण रूप मुख्य मन्त्र से जल के समान शीतल हो जाता है // 68-66 / / स्फुरत्फरणाडम्बरभीमकायः, फूत्कारभारैरुदयविषायः। उल्लालयन् क्रूरकृतान्तदंष्ट्राद्वयाभजिह्वायुगलं प्रकोपात् / / 100 //