________________ 102 ] हो सकते है अर्थात् पाप अकारण करुणा-परायण हैं / / 55 // हरेः समीपे हरिणा यदासते, स्फुरन्ति नागाः पुरतो गरुत्मतः / अयं प्रभावस्तव कोऽप्यनुत्तरो, विपश्चितां चेतसि हर्षवर्षदः / / 56 // हे जिनेश्वर ! सिंह के समीप जो हरिण रहते हैं और गरुड़ के सामने जो सर्प शोभित होते हैं यह विद्वानों के हृदय में हर्ष की वर्षा करनेवाला आपका कोई लोकोत्तर प्रभाव है / / 56 // अलौकिको योगसमृद्धिरुच्चकैरलौकिक रूपमलौकिकं वचः / ' न लौकिकं किञ्चन ते समीक्ष्यते, तथापि लोकत्वधिया ताः परे // 57 // हे देव ! आपकी योगसमृद्धि अलौकिक है, आपके रूप और वचन भी अलौकिक हैं, आपका कुछ भी लौकिक नहीं दिखाई देता है फिर भी दूसरे लोग आपमें लौकिक बुद्धि रखते हैं, अतः वे हत हैं / / 57 // विनैव दानं ततदानकीर्तये, विना च शास्त्राध्ययनं विपश्चिते / विनानुरागं भवते कृपावते, जगज्जनानन्दकृते नमो नमः॥५८ / / हे जिनेश्वर ! दान के बिना ही विस्तृत दानकीत्ति वाले, शास्त्राध्ययन के बिना ही विद्वान्, अनुराग के बिना ही कृपा करनेवाले और जगत् के जीवों को आनन्दित करनेवाले आपके लिए मेरा बार-बार प्रणाम है // 58 //